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हिरण्यकशिपु के वंश में राक्षस निकुंभ के दो पुत्र हुए, सुंद और उपसुंद। ये दोनों भाई अपने समय के शक्तिशाली राक्षस थे। दोनों में इतना प्रेम था कि उन्हें 'दो शरीर और एक आत्मा' कहा जाता था।
दोनों के स्वभाव, रुचियाँ और विचार समान थे। वे हमेशा साथ रहते, साथ खाते-पीते, और कभी एक-दूसरे के बिना कहीं नहीं जाते थे। दोनों एक-दूसरे को खुश और संतुष्ट रखने की कोशिश करते।
दोनों भाइयों ने अमर होने की इच्छा से कठोर तपस्या शुरू की। वे विंध्याचल पर्वत पर गए और केवल वायु का सेवन करते हुए साधना करने लगे। उनके शरीर पर मिट्टी जमा हो गई। अंततः उन्होंने अपने शरीर का मांस काट- काटकर हवन करना शुरू किया।
जब उनके शरीर में केवल हड्डियाँ ही बचीं, तो वे अपने पंजों के बल खड़े होकर, दोनों हाथ उठाकर तपस्या करने लगे। उनकी कठोर तपस्या से विंध्याचल पर्वत भी प्रसन्न हो गया।
देवताओं ने कई बाधाएँ डालने की कोशिश की, लेकिन कोई भी प्रलोभन, भय या छल उनकी तपस्या को रोक नहीं सका। अंत में ब्रह्माजी उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर प्रकट हुए।
ब्रह्माजी ने उनसे वरदान मांगने को कहा। उन्होंने कहा, "हे ब्रह्मदेव ! हमें मायावी शक्तियाँ प्राप्त हों, हम सभी शस्त्रों के ज्ञाता बनें और अमर हो जाएँ।"
ब्रह्माजी ने अमरत्व का वरदान देने से इनकार कर दिया। तब उन्होंने यह वर मांगा, "जब भी हमारी मृत्यु हो, वह केवल एक-दूसरे के हाथों से हो।" ब्रह्माजी ने 'तथास्तु' कहकर वरदान दे दिया।
वरदान पाकर दोनों भाई अपनी राजधानी लौटे और तीनों लोकों को जीतने का निश्चय किया।
बहुत जल्द दोनों भाइयों ने तीनों लोकों पर विजय प्राप्त कर ली। देवता, यक्ष, गंधर्व, और नाग उनके भय से भाग खड़े हुए। उन्होंने आदेश दिया कि "कोई भी यज्ञ, पूजा, वेदों का अध्ययन न करे। जहाँ यह सब हो, उस नगर को जला दो। ऋषियों को ढूंढ-ढूंढकर मार डालो।"
उनके इस आदेश से राक्षसों ने ब्राह्मणों को मारना शुरू कर दिया। ऋषियों के आश्रम जला दिए गए। जो भी ऋषि उन्हें शाप देते, उनके ब्रह्मा के वरदान के कारण शाप व्यर्थ हो जाते।
परिणामस्वरूप, ऋषि, ब्राह्मण और वेद ज्ञाता भय से पर्वतों की गुफाओं में छिप गए। समाज में यज्ञ-पूजा और वेदों का पाठ बंद हो गया। लेकिन राक्षस इससे भी संतुष्ट नहीं हुए। उन्होंने सिंह, बाघ और सर्प का रूप धारण कर ऋषियों को मारना शुरू कर दिया।
अत्याचारों से त्रस्त होकर ऋषि और देवता ब्रह्माजी के पास गए। ब्रह्माजी ने विचार कर विश्वकर्मा को बुलाया और एक सुंदर स्त्री बनाने का आदेश दिया
विश्वकर्मा ने संसार की सभी सुंदर वस्तुओं के सार से एक स्त्री बनाई। उसका हर अंग बेहद आकर्षक था। ब्रह्माजी ने उसका नाम 'तिलोत्तमा' रखा।
जब तिलोत्तमा ने ब्रह्माजी से आदेश पूछा, तो उन्होंने कहा, "तुम सुंद-उपसुंद को आपस में लड़ाकर उनका विनाश करो।"
तिलोत्तमा ब्रह्माजी का आदेश लेकर विंध्याचल पर्वत के उद्यान में पहुँची, जहाँ सुंद-उपसुंद अपने अनुचरों के साथ मदिरा पीकर आनंद मना रहे थे। तिलोत्तमा को देखते ही दोनों भाई उसकी ओर आकर्षित हो गए।
दोनों ने एक साथ तिलोत्तमा से अपनी पत्नी बनने की प्रार्थना की। तिलोत्तमा मुस्कुराते हुए बोली, "पहले तुम दोनों यह तय करो कि मैं किसकी पत्नी बनूँ।"
तिलोत्तमा के रूप और कामदेव के प्रभाव में दोनों भाइयों का प्रेम खत्म हो गया। शराब के नशे में डूबे और कामवासना से अंधे, दोनों में भयंकर लड़ाई शुरू हो गई।
दोनों ने एक-दूसरे पर अपनी गदा से प्रहार किया। उनका शरीर कट गया और खून की धारा बहने लगी। अंत में दोनों भाई एक-दूसरे के हाथों मारे गए।
तिलोत्तमा ने ब्रह्माजी का आदेश पूरा किया और स्वर्ग की सर्वश्रेष्ठ अप्सरा बन गई। देवताओं ने पुनः स्वर्ग पर अधिकार कर लिया।
इस कहानी से यह शिक्षा मिलती है कि वासना विनाश का कारण बनती है।
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