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श्रीजगन्नाथ जी की आँखे बड़ी क्यों है...?

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 श्रीजगन्नाथ जी की आँखे बड़ी क्यों है...?

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इसके मूल में भगवान् के प्रगाढ़ प्रेम को प्रकट करने वाली एक अद्भुत गाथा है।

एक बार द्वारिका में रुक्मणी आदि रानियों ने माता रोहिणी से प्रार्थना की कि वे श्रीकृष्ण व गोपियों की बचपन वाली प्रेम लीलाएँ सुनना चाहतीं हैं।

पहले तो माता रोहिणी ने अपने पुत्र की अंतरंग लीलाओं को सुनाने से मना कर दिया।

किन्तु रानियों के बार-बार आग्रह करने पर मैया मान गईं और उन्होंने सुभद्रा जी को महल के बाहर पहरे पर खड़ा कर दिया और महल का दरवाजा भीतर से बंद कर लिया ताकि कोई अनधिकारी जन विशुद्ध प्रेम के उन परम गोपनीय प्रसंगों को सुन न सके।

बहुत देर तक भीतर कथा प्रसंग चलते रहे और सुभद्रा जी बाहर पहरे पर सतर्क होकर खड़ी रहीं।

इतने में द्वारिका के राज दरबार का कार्य निपटाकर श्रीकृष्ण और बलराम जी वहाँ आ पहुँचे।

उन्होंने महल के भीतर जाना चाहा लेकिन सुभद्रा जी ने माता रोहिणी की आज्ञा बताकर उनको भीतर प्रवेश न करने दिया।

वे दोनों भी सुभद्रा जी के पास बाहर ही बैठ गए और महल के द्वार खुलने की प्रतीक्षा करने लगे।

उत्सुकता वश श्रीकृष्ण भीतर चल रही वार्ता के प्रसंगों को कान लगाकर सुनने लगे।

माता रोहिणी ने जब द्वारिका की रानियों को गोपियों के निष्काम प्रेम के भावपूर्ण प्रसंग सुनाए, तो उन्हें सुनकर श्रीकृष्ण अत्यंत रोमांचित हो उठे।


उन्हें स्मरण हो आया कि किस-किस प्रकार गोपियाँ अपनी प्रिया व प्रियतम (राधा-कृष्ण) को थोड़ा-सा सुख देने के लिए ही अपने बड़े से बड़े सुख का त्याग कर देतीं थीं। 

कैसे-कैसे गोपियों ने मेरे प्रेम के लिए न लोकलाज की तनिक भी परवाह की और न वेद-शास्त्र का डर रखते हुए नरकादि की ही कोई चिंता की।

गोपियों के परम प्रेम के दिव्य भावों की वार्ता सुन-सुनकर श्रीकृष्ण भावावेश में संकुचित होने लगे।

मधुर भाव की सब लीलाएँ मानो साकार होकर उनके समक्ष घूमने लगीं थीं।

गोपियों के परम त्याग की बातें सुन-सुनकर उनकी आँखें आश्चर्य युक्त मधुर भाव के आवेश में फैलतीं ही चलीं गयीं।

और अंततः श्रीकृष्ण महाभाव की परम उच्चावस्था में प्रवेश कर गए।

उनका सारा शरीर सिकुड़ चुका था, शरीर के शेष अंग शिथिल होकर छोटे पड़ गए परंतु उनका चेहरा दमकता ही जा रहा था, आँखें लगातार फैलती ही चलीं गयीं।

श्री दाऊ जी ने जब श्रीकृष्ण की अपूर्वदृष्ट उस दशा को देखा, तो बाल सखाओं की स्मृतियों में भगवान् का इतना प्रगाढ़ लगाव देखकर वे भी परमानंद दशा से महाभाव में प्रवेश कर गए।

उनका भी चिंतन भगवान् से एकाकार हो जाने से उनकी शारीरिक दशा भी श्रीकृष्ण जैसी ही हो गयी।

अपने ही चिंतन में खोई सुभद्रा जी ने जब अनायास ही अपने दोनों भाइयों को परम प्रेम की अवर्णनीय अवस्था में देखा तो उनके भक्त वत्सल व प्रेमानुरक्ति के भाव का चिंतन करके सुभद्रा जी भी तल्लीन होने लगीं और देखते ही देखते वे भी तदारूप हो गईं।


उनकी भी शारीरिक दशा दोनों भाइयों जैसी ही हो गयी।

भगवान् की अंतः प्रेरणा से तभी वहाँ पर श्री नारद जी आ पहुँचे।

महल के भीतर और बाहर की सारी परिस्थिति को भली प्रकार देख-समझकर नारद जी श्रीकृष्ण के प्रेम में गदगद् होकर अश्रुपूरित नेत्रों से भगवान् की स्तुति करने लगे।

श्री नारद जी ने जब देखा कि गोपियों के विशुद्ध निष्काम प्रेम के चिंतन मात्र से श्रीकृष्ण, बलराम व सुभद्रा की अपूर्व, अवर्णनीय महाभाव दशा हो गयी है,

 तो वे भी भगवान् के प्रेम में पागल से हो उठे।

भाँति-भाँति की स्तुति करते हुए बड़े प्रयत्नों से नारद जी ने भगवान् को अपने सामान्य स्वरूप में लाने का यत्न किया और भगवान् को सहज हुआ जानकर भक्त वत्सल नारद जी अपने अश्रुपूरित नेत्रों से भगवान् से प्रार्थना करने लगे-

"हे श्रीकृष्ण! मैंने परम आनंदमग्न हुए, महाभाव में निमग्न हुए, विस्फरित नेत्रों वाले आपके जिस अति विशेष विग्रह के दर्शन किए हैं, आपका वह रूप विश्व इतिहास में बड़े से बड़े पुण्यात्माओं व आपके भक्तों ने भी कभी नहीं देखा होगा।

अब आप कोई ऐसी कृपा कीजिए जिससे कि आने वाले इस कलियुग में जो पापात्मा जीव होंगे, 

वे आपके परम प्रेम में रूपांतरित हुए इसी श्री विग्रह के दर्शन कर पाएँ और परम प्रेम स्वरूपा गोपियों में आपके प्रति और आपमें गोपियों के प्रति कैसा अनन्य भक्ति का विशुद्ध भाव था, 

इसका सब लोग चिंतन करते हुए निष्काम भक्ति के पथ पर आगे बढ़ते हुए अपना कल्याण कर सकें तथा आपका दिव्य प्रेम पाने के पात्र बन सकें।

भगवान् ने नारद जी के जीव कल्याण हित दया भाव की भूरि-भूरि प्रशंसा की और उन्हें वरदान देते हुए कहा, 

"नारद जी! कलियुग में मुझे भगवान् जगन्नाथ के रूप में जाना जाएगा और मेरे विशेष कृपापात्र भक्त उत्कल क्षेत्र के पुरी धाम में हम तीनों के इसी महाभाव रूप के विग्रह स्थापित करेंगे।

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