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गीता का इतिहास और पृष्ठभूमि
जब हम 'गीता' का नाम सुनते
हैं,
तो अक्सर हमारे मन
में एक धार्मिक पुस्तक
का चित्र उभरता है।
लेकिन सच पूछिए तो भगवद गीता केवल एक
धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि एक जीवन जीने
की कला
है। ये ऐसा ग्रंथ
है जो
हर इंसान,
हर उम्र,
हर धर्म,
हर स्थिति
में पढ़ सकता है
और इससे कुछ न
कुछ सीख सकता है।
भगवद
गीता का
जन्म
महाभारत
युद्ध के
दौरान हुआ। उस समय
कुरुक्षेत्र के मैदान में, पांडव और
कौरव युद्ध के लिए
आमने-सामने खड़े थे।
अर्जुन,
जो कि पांडवों के
महान धनुर्धर योद्धा थे, युद्ध शुरू
होने से ठीक पहले
अपने रथ में खड़े
होकर अपने गुरु द्रोणाचार्य, अपने पितामह
भीष्म,
अपने भाइयों और संबंधियों
को सामने देखकर मनोवैज्ञानिक रूप से टूट
जाते हैं।
उनका धनुष हाथ से
गिर जाता है, आँखों में
आँसू आ जाते हैं
और वे कहते हैं
–
"मैं
अपनों के खिलाफ युद्ध नहीं
कर सकता।"
यहीं पर श्रीकृष्ण, जो उनके
सारथी बने थे, अर्जुन को
जीवन का सबसे बड़ा
उपदेश देते हैं, जिसे हम आज ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ के नाम से
जानते हैं।
यह संवाद लगभग 700
श्लोकों में है, और इसे
महर्षि वेदव्यास ने महाभारत
में लिखा।
गीता उपदेश का सार – आम आदमी की भाषा में
अब आइए, गीता के उन गूढ़ और
महान विचारों को बिल्कुल सरल भाषा में समझते हैं, जैसे कोई
बुजुर्ग अपने पोते को समझाता है।
कर्म करो, फल की चिंता मत करो
गीता का सबसे प्रसिद्ध वाक्य है: "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु
कदाचन।"
इसका मतलब ये है — तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने में है, फल पर नहीं।
यानि अगर तुम मेहनत कर रहे हो, ईमानदारी
से काम कर रहे हो, तो फिर परिणाम की चिंता मत करो। उदाहरण
के लिए: अगर एक किसान बीज बोता है, सिंचाई करता है,
खाद डालता है – तो फसल कैसी होगी, ये मौसम और प्रकृति पर भी निर्भर
करता है। लेकिन किसान का काम था बीज बोना – वो उसने कर
दिया।
हमें
भी यही सीखनी है – ईमानदारी से काम करो, बाकी भगवान पर छोड़
दो।
उदाहरण:
रामू एक ऑटो चालक है। दिन भर धूप में लोगों को इमानदारी से उनकी मंज़िल
तक छोड़ता है। एक बार एक अमीर आदमी ने उसे रिश्वत देकर गलत काम करने को कहा,
पर रामू ने मना कर दिया – उसने कहा:
“मैं
कमाता हूँ मेहनत से, पेट भरता हूँ ईमानदारी से। यही मेरा धर्म
है।”
गीता कहती है
– यही सच्चा कर्मयोग है।
रामू का
फ़ैसला
हर इंसान का कर्म ही उसका धर्म है। गीता कहती है — “कर्तव्य का
पालन ही असली पूजा है।”
सुबह के पाँच बजे थे। हवा में हल्की ठंडक थी, और चिड़ियों की चहचहाहट के बीच एक पुराना ऑटो सड़क पर धीरे-धीरे सरक रहा
था।
स्टेयरिंग पर बैठा था रामू — एक सादा, मेहनतकश
ऑटो ड्राइवर। उम्र यही कोई 42 साल, सांवला रंग, गालों पर हल्की झुर्रियाँ और आँखों
में ईमानदारी की चमक।
वो रोज़ सुबह सबसे पहले रेलवे स्टेशन जाता,
जहां रात भर के मुसाफ़िर शहर में कदम रखते थे। स्टेशन से सवारी लेकर
दोपहर तक बच्चों को स्कूल, कर्मचारियों को ऑफिस, महिलाओं को बाज़ार और बुज़ुर्गों को मंदिर पहुँचाना – यही उसकी दिनचर्या
थी।
रामू का मानना था — “मुझे जितने भी पैसे
मिलते हैं, उससे ज़्यादा मेरी सच्ची कमाई है लोगों की दुआएँ।
ये ही असली धन है।”
एक दिन, दोपहर के समय एक महंगी
कार वाले साहब ने रामू को रोका। साथ में था एक नौजवान लड़का – कंधे पर बैग,
आँखों में डर और चेहरे पर घबराहट।
साहब ने कहा, "भाई, इस लड़के को शहर से बाहर एक जगह छोड़ना है। कोई नहीं जानना चाहिए कि ये
कहाँ गया। पैसे दोगुने मिलेंगे – पाँच हज़ार अभी, पाँच हज़ार
लौटते ही।”
रामू थोड़ी देर चुप रहा। उस लड़के की नज़रें नीचे झुकी
हुई थीं। साहब की आवाज़ में ठसक थी। पाँच हज़ार रुपये उसके लिए बहुत थे – घर में दो
दिन से गैस खत्म थी, बेटी की फीस पेंडिंग थी, और पत्नी की दवाइयाँ भी बाकी थीं।
फिर भी रामू ने धीरे से पूछा, “क्यों? किससे छुपकर जा रहे हो?”
साहब ने चिढ़कर कहा, "क्यों,
सवाल पूछने की तनख्वाह मिलती है क्या? काम
करना है तो करो, वरना चला जा।”
रामू कुछ देर सोचता रहा। उस लड़के की आँखों में कुछ
कहने की कोशिश थी, पर होंठ बंद थे। तभी रामू ने लड़के से सीधे
पूछा,
“बेटा,
भाग रहे हो क्या? किसी से डर कर?”
लड़के की आँखें भर आईं। वो फुसफुसाया – “मुझे ज़बरदस्ती किसी
गैंग में ले जा रहे हैं। मुझसे कहा गया था नौकरी मिलेगी, लेकिन
अब…”
अब बात रामू की जेब से ऊपर उसके ज़मीर की हो गई थी।
रामू ने तुरंत पैसे लौटाए और साहब से कहा –
“माफ
कीजिए, मैं गाड़ी नहीं चलाऊँगा। ये लड़का अगर आपकी मर्ज़ी
के खिलाफ कहीं जा रहा है, तो ये मेरा काम नहीं। मेरा काम लोगों
को मंज़िल तक पहुँचाना है, न कि उन्हें अंधेरे में धकेलना।”
साहब गुस्से में बड़बड़ाता चला गया।
रामू ने लड़के से कहा, “तू मेरे साथ चल,
मैं तुझे पुलिस चौकी छोड़ देता हूँ। वहाँ से सही मदद मिलेगी।”
घर की
चिंता और अंतरात्मा की शांति
उस दिन घर पहुँचा तो बीवी ने पूछा, “कुछ कमाया?”
रामू ने मुस्कुराकर कहा, “हाँ, आज आत्मा
को सुकून मिला। और हाँ, दो सवारी मिल गई थीं – खाना आ जाएगा।”
पत्नी चुप रही, लेकिन रामू की आँखों
में संतोष देखकर वो समझ गई – इस आदमी ने आज भी कुछ बड़ा किया है।
कहानी का
सार:
रामू पढ़ा-लिखा नहीं था, लेकिन
गीता का मर्म उसके जीवन
में था।
उसने कर्तव्य और नैतिकता को पैसे से ऊपर रखा।
उसने कोई बड़ा प्रवचन नहीं दिया, बस अपने छोटे-से जीवन में एक बड़ा फ़ैसला
लिया। गीता
कहती है – "कर्म किए जा, फल की चिंता मत कर।”
रामू ने वही किया।
आत्मा अमर है – शरीर नश्वर
श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा — "जिस शरीर को तुम मारने से डर रहे हो, वो तो नष्ट
होने वाला है। आत्मा को कोई नहीं मार सकता, वो तो हमेशा रहती
है।"
आमतौर पर हम मौत से डरते हैं, या अपने किसी करीबी के जाने से टूट जाते हैं।
गीता कहती है
– आत्मा न जन्म लेती है, न मरती है। वो सिर्फ
शरीर बदलती है। जैसे हम पुराने कपड़े उतार
कर नए पहनते हैं, वैसे आत्मा भी पुराने शरीर को छोड़कर नया
शरीर लेती है।
यह बात हमें सिखाती है कि जीवन एक यात्रा है,
एक पड़ाव के बाद दूसरा पड़ाव आता है।
उदाहरण:
श्यामलाल जी के पिता का देहांत हुआ। वो टूट गए। फिर उनकी माँ ने गीता
की एक बात याद दिलाई – “बेटा, शरीर चला गया है, पर आत्मा तो अजर-अमर है। वो कहीं और जन्म लेकर फिर नया काम करेगी।”
उन्हें शांति मिली, और वे संभल गए। यही गीता का गूढ़ संदेश है – आत्मा कभी
नहीं मरती।
“माँ चली गई, पर मैं बदल गया”
– "जो आया है, वो जाएगा... लेकिन आत्मा नहीं जाती"
"मैंने पहली बार जीवन को जाना… जब मृत्यु को
देखा"
राजीव – लुधियाना में रहने वाला 28 वर्षीय प्राइवेट कर्मचारी।
माँ-बाप के इकलौते बेटे, जीवन भागदौड़ में
उलझा हुआ।
सुबह ऑफिस, रात दोस्तों के
साथ मोबाइल गेम्स या फिल्में।
माँ अकसर कहती, “थोड़ी देर बैठ जाया कर, बात किया कर…”
राजीव टाल देता: “माँ, टाइम नहीं होता।”
अचानक एक
सुबह… जीवन रुक गया
सर्दियों की एक सुबह, माँ
ने उठने में देर की।
राजीव ने देखा — माँ शांत लेटी थीं, साँसें
नहीं थीं।
माँ
जा चुकी थीं।
उस पल कुछ टूट गया… घर शांत था, लेकिन राजीव के भीतर
शोर था।
“मैंने बात ही कहाँ की थी?” “हर बार टालता रहा…”
“कितना कुछ अधूरा रह गया…”
शव के
पास बैठा बेटा — पहली बार गहराई से सोचता हुआ
लोग आए, चले गए। वो माँ के
पास बैठा रहा — बिना आँसू के, बस शून्य में देखता रहा। उसे
याद आया — माँ अक्सर गीता पाठ सुनती थीं, कहती थीं:
“मरता
कोई नहीं बेटा, ये शरीर जाता है, आत्मा तो अमर है।”
उसी रात उसने माँ की अलमारी में गीता रखी देखी।
खोलकर पढ़ने लगा — धीरे-धीरे… रोता रहा… पढ़ता रहा।
"मैं
बदल गया"
अब राजीव का जीवन बदला:
हर सुबह माँ के चित्र के सामने बैठकर 10 मिनट मौन बैठता
— न प्रार्थना, न शब्द, बस मौन।
गीता के एक श्लोक को पढ़कर उसका मतलब सोचता।
जीवन में रिश्तों को टालने के बजाय समझने लगा।
अब वह पिता के साथ बैठता, दोस्तों को फोन करता,
और सबसे बड़ी बात — हर
दिन को अंतिम मानकर जीने की कोशिश करता।
माँ नहीं
रही, पर माँ की सीख अब ज़िंदा है।
राजीव अब माँ के जाने का दुख नहीं, उनके दिए हुए “जीवन का बोध”
जी रहा है।
सार –
मृत्यु से डर नहीं,
समझ
चाहिए
जो आया है, वो जाएगा — यही
प्रकृति है।
मृत्यु अंत नहीं, आत्मा की
यात्रा है।
जो वर्तमान को ठीक से नहीं जीता, वो मृत्यु से डरता है।
आम आदमी
के लिए गीता का यह उपदेश
अपनों से बात करते रहो — कल हो न हो।
मृत्यु को याद करना दुख की बात नहीं — सजगता की बात है।
आत्मा को समझो — शरीर से मोह कम होगा।
पूरी
गीता का सार यही है:
“कर्म करो, मोह त्यागो,
आत्मा को जानो, और शांत रहो।”
मन को जीतना ही सबसे बड़ी विजय है
गीता कहती है — "मनुष्य खुद अपना
मित्र है और खुद ही अपना शत्रु भी।"
अगर हम अपने मन को नियंत्रित कर लें, तो दुनिया की कोई चीज
हमें हरा नहीं सकती। लेकिन अगर मन ही चंचल और भ्रमित हो जाए, तो हम स्वयं को खो बैठते हैं।
हर
दिन हमारे भीतर लड़ाई चलती है – आलस्य बनाम मेहनत, लालच बनाम संतोष,
गुस्सा बनाम धैर्य। अगर
हम अपने भीतर की लड़ाई जीत जाएं, तो बाहरी दुनिया की कोई ताकत
हमें नहीं रोक सकती।
उदाहरण:
राजेश हर बार पढ़ाई शुरू करता, लेकिन मोबाइल
और सोशल मीडिया उसका ध्यान भटका देते। एक दिन उसने खुद से कहा –
“अब मुझे
अपने मन को कंट्रोल करना है, नहीं तो मैं कहीं नहीं पहुँचूंगा।”
धीरे-धीरे उसने मोबाइल का समय कम किया और परीक्षा में अच्छे अंक लाए।
गीता यही सिखाती
है – मन को जीत लिया तो खुद को जीत लिया।
राजेश और मोबाइल
“मैं अपने मन को क्यों नहीं रोक पाता?” — यह सवाल राजेश खुद से अक्सर पूछता था।
राजेश एक 28 वर्षीय साधारण
नौजवान था, जो एक छोटे शहर में सरकारी क्लर्क की नौकरी करता
था। पढ़ाई में अच्छा था, नौकरी भी समय पर मिल गई, लेकिन अब उसकी
सबसे बड़ी लड़ाई... बाहरी दुनिया से नहीं, खुद से थी।
राजेश ने जब स्मार्टफोन लिया, तो शुरू में वो बस समय देखकर, दोस्तों से बात करके
और थोड़ी न्यूज पढ़कर काम चलाता था। फिर धीरे-धीरे उसने Instagram पर अकाउंट बनाया, YouTube की शॉर्ट्स देखनी शुरू
की, और फिर... रात को सोने से पहले 10 मिनट का स्क्रीन टाइम 1
घंटे से ऊपर चला गया।
सुबह उठने के बाद सबसे पहले मोबाइल चेक करना। नहाने
की बजाय स्क्रॉल करना। कभी Reel में motivational
quotes तो कभी बेमतलब की कॉमेडी क्लिप्स। और फिर खुद से गुस्सा — “इतना टाइम क्यों
खराब कर दिया?”
राजेश का ध्यान अब काम में नहीं लगता था। फाइलें पेंडिंग
रहने लगीं। बॉस की डांट सुननी पड़ी। शाम को मन करता — आज थोड़ा टहलूंगा, एक्सरसाइज़ करूंगा। लेकिन मोबाइल ने फिर बांध लिया।
एक दिन माँ ने कहा — "बेटा, तुम्हारी
आँखें भी थकी सी लगती हैं और मन भी। ये फोन ने क्या बना दिया है तुम्हें?"
राजेश ने जवाब नहीं दिया। उसे पता था — वो मोबाइल का गुलाम बनता जा रहा है।
एक दिन एक पुराना दोस्त मिलने आया – अजय, जो पहले राजेश से कमजोर था पढ़ाई में। अब वो एक फ्रीलांसर के तौर पर सफल
हो चुका था।
अजय ने एक बात कही, जो राजेश को चुभ गई
—
"राजेश, तुझमें सब कुछ है – दिमाग, नौकरी, संस्कार। पर बस एक चीज नहीं है – अपने मन
को कंट्रोल करने की ताकत।"
उस रात राजेश ने खूब सोचा — "अगर मेरा ही मन
मुझे कंट्रोल कर रहा है, तो मैं क्या इंसान हूँ? क्या मैं गुलाम हूँ अपने ही इच्छाओं का?"
राजेश ने खुद से एक संकल्प लिया: "हर दिन 1%
बेहतर बनूँगा।"
पहले दिन उसने मोबाइल में से सारे फालतू apps
हटा दिए।
फिर उसने एक पुरानी डायऱी निकाली और लिखा —
“आज शाम
7 बजे से 8 बजे तक मोबाइल नहीं छूऊँगा।”
— पहली बार मन बहुत छटपटाया, लेकिन वो टिका
रहा।
उसने हर
दिन एक-एक घंटा मोबाइल फ्री रखा।
मेडिटेशन की कोशिश शुरू की – बस 5 मिनट आँखें बंद कर गहरी साँसें लेना। ऑफिस में “Do Not Disturb” मोड लगाया।
धीरे-धीरे उसका ध्यान वापस लौटने लगा।
अंदर की
जीत का फल
एक महीने बाद ही उसके बॉस ने नोटिस किया —
“राजेश,
तुम फिर से वही तेज़ लड़का बन गए हो। अच्छा लग रहा है।”
राजेश ने मुस्कराकर सिर झुका दिया, लेकिन मन में जो खुशी थी, वो कोई और नहीं समझ सकता
था। वो जीत किसी दूसरे से नहीं थी — वो
अपने मन की हार को हराकर जीता था।
कहानी का सार
गीता कहती है — "जो मन को जीत
लेता है, वो पूरे संसार पर विजय
पा
सकता है।" राजेश को कोई लड़ाई नहीं लड़नी थी,
कोई दंगल नहीं जीतना था, कोई पुरस्कार नहीं
पाना था। उसकी लड़ाई सिर्फ उस
मोबाइल की स्क्रीन से थी, जो उसके आत्मविश्वास को निगल रही थी।
लेकिन उसने रोज़ छोटे-छोटे कदमों से अपने मन को साधा।
कोई बड़ा त्याग नहीं, बस रोज़ थोड़ी सी
दृढ़ता।
सीख – आम
आदमी के लिए सरल गीता
मन कभी कहता है "थोड़ा और देख लेते हैं",
मन कभी कहता है "कल से सुधारेंगे",
लेकिन जब हम तय कर लें — "अब मुझे चलाना है मन
को",
तब ही वास्तविक
आज़ादी मिलती है।
न कोई अपना, न पराया – सब
ब्रह्म के अंश हैं
श्रीकृष्ण ने बताया कि सब प्राणी एक ही परमात्मा के अंश हैं।
हम किसी को अपना और किसी को पराया मानते हैं, लेकिन गीता सिखाती है कि हम
सब एक ही ऊर्जा के स्वरूप हैं।
जब हम यह समझने लगते हैं कि हर जीव में वही आत्मा है,
तो फिर हम किसी से द्वेष नहीं करते, हिंसा
नहीं करते, घृणा नहीं करते।
संतुलन ही जीवन का आधार है
गीता कहती है — "न तो ज्यादा सोने
वाला, न ज्यादा जागने वाला, न ज्यादा
खाने वाला, न उपवास करने वाला –
कोई भी व्यक्ति योगी नहीं हो सकता।" यानि अति हर चीज की बुरी है।
अगर हमें स्वस्थ, संतुलित और शांत जीवन चाहिए, तो हर चीज का संतुलन जरूरी है – काम का भी, भोजन
का भी, विश्राम का भी, और रिश्तों
का भी।
सच्चा योग – अपने कर्तव्य को समझना और
निभाना
अर्जुन युद्ध से भागना चाहता था। लेकिन श्रीकृष्ण ने
उसे बताया कि —
“तुम्हारा
धर्म है कि तुम एक योद्धा हो, और अधर्म के खिलाफ लड़ना
तुम्हारा
कर्तव्य है।”
यही गीता का असली सार है — हर व्यक्ति को अपने कर्तव्य को पहचानना
चाहिए और उसे पूरी निष्ठा से निभाना चाहिए, चाहे परिस्थिति कैसी
भी हो।
उदाहरण:
रविना जी नौकरी करती हैं, घर भी संभालती
हैं, लेकिन वो अपने लिए रोज़ थोड़ा समय ध्यान और सैर के लिए
निकालती हैं। न ज़्यादा खाना, न ज़्यादा काम – सब कुछ संतुलन
में। वो कहती हैं,
“अगर
मैं खुद पर ध्यान न दूँ, तो न काम ठीक से होगा, न घर।”
यही गीता सिखाती
है – संतुलन में रहो,
तभी सुख मिलेगा।
सीमा की
चुप्पी
“मैंने सबको खुश रखा, खुद को भूल गई”
सीमा शर्मा — दिल्ली के एक मध्यमवर्गीय परिवार की 38
वर्षीय
गृहिणी। पति सरकारी नौकरी में, दो बच्चे स्कूल में।
घर साफ, खाना हमेशा समय पर, बच्चों की पढ़ाई पर पूरा ध्यान —
एक आदर्श गृहिणी,
लेकिन खुद के लिए बिल्कुल समय नहीं।
शरीर
थकता रहा,
मन टूटता रहा… पर शिकायत कभी नहीं।
सीमा के दिन की शुरुआत सुबह 5 बजे होती और रात 11 बजे तक वह एक मशीन की तरह काम
करती। पति ऑफिस से आते तो मोबाइल में व्यस्त, बच्चे अपने स्क्रीन
में। सीमा चाहती कि कोई उसे भी पूछे — "तुम कैसी हो?"
धीरे-धीरे उसे लगने लगा कि वो दिखने में तो मुस्कुराती है, लेकिन अंदर से खाली
हो चुकी है।
वो अक्सर अकेले में रोती, पर किसी को नहीं बताती।
कभी-कभी चिल्ला देती, और फिर खुद को ही दोष
देती —
"मैं ही कुछ ज़्यादा सोचती हूँ शायद।"
एक दिन अचानक चक्कर आ गया। डॉक्टर ने टेस्ट किया —
सब नॉर्मल था, पर डॉक्टर ने कहा, “आपका शरीर नहीं,
आपकी आत्मा थकी है। आप खुद से ही कट चुकी हैं।” सीमा चौंकी।
डॉक्टर ने सुझाव दिया — “रोज़
30 मिनट सिर्फ अपने लिए निकालिए।
ध्यान कीजिए। संगीत सुनिए। अकेले बैठिए, लेकिन खुद के साथ।”
योग और
ध्यान – मन की खामोशी में जवाब
सीमा ने शुरुआत की —
रोज़ सुबह 15 मिनट ध्यान, छत पर बैठकर चुपचाप साँसों पर ध्यान देना।
शुरू में अजीब लगा — मन भागता रहा। पर धीरे-धीरे एक
शांति महसूस होने लगी। उसी शांति में उसने देखा — “मैंने सबके लिए खुद
को मिटा दिया, पर खुद के लिए कभी कुछ नहीं किया।”
और यही सबसे बड़ी गलती थी।
अब वो रोज़ 5-10 मिनट खुद से बात
करती — “सीमा, क्या
तुम खुश हो?”
धीरे-धीरे जवाब आने लगा — “हाँ, अब मैं ज़िंदा महसूस करती हूँ।”
गोल रोटी
नहीं,
संतुलन
जरूरी है
अब सीमा सबका ख्याल रखती थी — लेकिन अपने मन का भी।
बच्चों को कहती — “माँ थक
गई है, अब तुम खुद टिफिन तैयार करो।”
पति से कहती — “हर रविवार सिर्फ मेरा दिन
होगा।”
कभी किताब पढ़ती, कभी बागवानी, कभी संगीत।
पर यह बदलाव गुस्से से नहीं, प्रेम से आया।
क्योंकि अब वो भीतर
से शांत थी।
गीता का
उपदेश — साधारण जीवन में कैसे उतारें
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा: “योगस्थः कुरु कर्माणि।”
(मन को स्थिर कर, ध्यान में रहकर कर्म करो।)
ध्यान और आत्मसंयम का मतलब यह नहीं कि हिमालय जाकर
बैठो —
बल्कि रोज़ के जीवन में थोड़ी
सी चुप्पी, थोड़ा सा विराम,
थोड़ी सी खुद
से बात — यही असली योग है।
सीमा ने न तो धर्म बदला, न
परिवार — बस खुद को भुलाने
की आदत छोड़ दी।
सीख – आम
लोगों के लिए ध्यान का अर्थ
खुद से जुड़ना ही सच्चा ध्यान है।
अपनी खुशी को टालते-टालते, जीवन बीत जाता है।
परिवार की सेवा के साथ, अपने मन की भी सेवा करो।
जो हुआ अच्छा हुआ, जो हो रहा है
अच्छा हो रहा है, जो होगा वो भी
अच्छा ही होगा
यह गीता का वह वाक्य है जो बहुतों को शांत करता है।
यह बताता है कि जीवन
में सब कुछ एक कारण से होता है। हमें हर घटना से कुछ न कुछ सीख मिलती
है। अगर हम हर परिस्थिति को सीख के रूप में लें, तो दुःख भी
शिक्षक बन जाता है।
सीमा की
दुकान
"जो होगा, अच्छा ही होगा। मैं बस कोशिश करती हूँ।"
— ये वाक्य सीमा रोज़ खुद से कहती थी।
सीमा एक छोटे से कस्बे की रहने वाली थी। उसका पति एक
प्राइवेट कंपनी में ड्राइवर था, पर लॉकडाउन के समय उसकी नौकरी
चली गई। दो छोटे बच्चे, एक बूढ़ी सास और सीमित बचत। कुछ दिन
रिश्तेदारों से उधार लेकर काम चला, फिर सहारा ढूँढ़ने का समय
आ गया।
सीमा ने फैसला किया — एक छोटी-सी चाय और नाश्ते की दुकान शुरू
करेगी।
बहुत लोगों ने टोका — “तू औरत होकर सड़क
किनारे चाय बेचेगी?”
“कौन चाय पीने आएगा तेरे पास?” “घर में रह,
कुछ काम सिलाई कर ले।”
लेकिन सीमा को बस एक ही बात समझ में आती थी —
“अगर
मैं कुछ नहीं करूँगी, तो घर भूखे रहेगा।”
सीमा ने अपनी शादी के गहनों में से एक सोने की अंगूठी
गिरवी रखी और 10,000 रुपये मिले। उसी से चाय बनाने का स्टोव,
कुछ कुर्सियाँ, डिस्पोजेबल कप और बिस्कुट
के डिब्बे खरीदे। कस्बे के बस अड्डे के पास एक कोना देखकर उसने अपनी छोटी दुकान जमा
दी — एक छाता, एक स्टोव, एक मुस्कान।
पहले
दिन सिर्फ 3
कप चाय बिकी। दूसरे दिन
5, तीसरे दिन 2,
और फिर बारिश आ गई – दुकान लग ही नहीं पाई।
सीमा
रोई नहीं। बस बोली – “कल फिर कोशिश करेंगे।”
एक दिन एक स्कूल टीचर सुबह बस का इंतज़ार कर रहे थे।
सीमा ने मुस्कुराकर कहा — "सर, गरम चाय है। बारिश में राहत देगी।"
सर ने चाय पी। तारीफ़ की – "बहुत अच्छी चाय
है। घर जैसा स्वाद है।"
उस दिन से रोज़ आने लगे। फिर उनके साथ एक और शिक्षक
आए। और फिर कुछ ऑफिस जाने वाले। सीमा
की चाय धीरे-धीरे मशहूर होने लगी।
उसने अपनी दुकान में बिस्कुट, ब्रेड रोल
और अचार की छोटी पुड़ियाँ भी रखनी शुरू कर दीं।
अब दुकान से रोज़ 300–400 रुपये की कमाई हो जाती थी। सास को दवाइयाँ मिलने लगीं, बच्चों की स्कूल फीस धीरे-धीरे भरी जाने लगी। सीमा ने पति को दुकान में
हाथ बँटाने को कहा — और अब दोनों मिलकर सुबह 6 से दोपहर 12
बजे तक मेहनत करते।
सीमा का एक नियम था — "मैं रोज़ दुकान
लगाऊँगी, चाहे बारिश हो या धूप। कितने कप बिकेंगे,
ये मेरे हाथ में नहीं। लेकिन चाय का स्वाद, मेरी मुस्कान और सफाई – ये सब मेरे हाथ में हैं।"
कभी-कभी दिन बहुत खराब जाते — चाय गिर जाती,
ग्राहक नहीं आते, पुलिस वाले टोका-टोकी करते।
फिर भी सीमा का भरोसा नहीं डगमगाता।
वो हर रात अपने बच्चों को लोरी सुनाते हुए कहती –
“काम
करते रहो, फल भगवान देगा। जैसे खेत में बीज बोया जाता है,
वैसा ही फल उगता है। बस बीज सही हो।”
एक दिन कस्बे में एक नई चाय की बड़ी दुकान खुली – AC
और fancy cups के साथ। कुछ ग्राहक उधर जाने
लगे। सीमा थोड़ा घबरा गई, लेकिन उसने अपने तरीके नहीं बदले।
फिर एक दिन वही स्कूल टीचर आए और बोले – “सीमा, वहाँ सबकुछ
है, पर तेरे जैसा स्वाद और अपनापन नहीं है।” उस दिन सीमा की आँखों में आँसू थे – ये कमाई का नहीं, मान्यता का फल था।
कहानी का
सार
सीमा को गीता
का कोई श्लोक नहीं आता था।
उसे बस यह समझ थी कि — “रोज़ ईमानदारी से काम करते रहना है। ग्राहक
आएँ या न आएँ, आज दुकान खुलेगी।" उसने कभी यह नहीं सोचा कि "कितना कमाऊँगी" उसने बस यह सोचा —
"आज मैं कोशिश नहीं छोड़ूँगी।"
सीख –
गीता उपदेश का सरल अर्थ
गीता कहती है – "कर्म करो,
फल की चिंता मत करो।"
फल की चिंता करेंगे तो या तो उम्मीद टूटेगी या अहंकार बढ़ेगा।
लेकिन अगर सिर्फ कर्म करेंगे – तो शांति, सम्मान और सफलता –
तीनों धीरे-धीरे आएँगे।
सीमा ने यही किया – गहने गिरवी रखे, हिम्मत नहीं।
बिक्री घटी, भरोसा नहीं। गाँव वालों
ने हँसा,
पर उसने कर्म को पूजा बनाया।
आज के
समय में गीता की उपयोगिता
आजकल की दौड़-भाग वाली जिंदगी में, जहाँ चिंता, डर, ईर्ष्या,
असफलता, और भ्रम हर किसी को घेरे हुए है
— गीता हमारे जीवन के लिए
एक मार्गदर्शक दीपक की तरह है।
·
जब हम निर्णय नहीं ले पा रहे होते
हैं – गीता हमें स्पष्टता देती है।
·
जब हम थक कर हार मानना चाहते हैं
– गीता हमें प्रेरणा देती है।
·
जब हम रिश्तों में उलझ जाते हैं –
गीता हमें आत्मा की दृष्टि से सब देखने की सलाह देती है।
अंत में एक छोटी सी सच्ची बात
भगवद
गीता कोई धर्म विशेष की पुस्तक नहीं है — ये हर इंसान के लिए है। यह आपको मंदिर नहीं ले जाती, बल्कि आपके भीतर के द्वंद्व से लड़ने की ताकत
देती है। अगर आपने गीता को सही अर्थ में समझ लिया, तो आपको बाहर
किसी उपदेशक की ज़रूरत नहीं पड़ेगी, क्योंकि आपका आत्मा
ही आपका गुरु बन जाएगा।
सरल भाषा
में गीता का सार
·
अपने कर्तव्य को पहचानो और पूरी निष्ठा
से निभाओ।
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अच्छे और बुरे परिणाम की चिंता छोड़
दो।
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मन को वश में करो, वो सबसे बड़ा साथी भी है और दुश्मन भी।
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आत्मा अमर है, शरीर नश्वर।
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दूसरों में भी वही आत्मा देखो,
जो खुद में है।
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जीवन को संतुलन में जीयो – भोजन,
नींद, कार्य, संबंध
– सब में मध्यम मार्ग अपनाओ।
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कोई भी परिस्थिति अंतिम नहीं होती
– जो हो रहा है, उसका भी एक उद्देश्य है।
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