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गाय और बछड़े की जुदाई
बरसात की भीगी रात थी। गाँव के एक छोटे-से खलिहान में एक गाय प्रसव पीड़ा से गुजर रही थी। मालिक ने उसे कोने में बाँध रखा था। पूरी रात उसके शरीर में दर्द की लहरें उठती रहीं, और आखिरकार भोर होने से पहले उसने एक सुंदर, मासूम बछड़े को जन्म दिया।
गाय की आँखों में उस क्षण की चमक शब्दों से परे थी। जैसे सारी पीड़ा मिट गई हो। उसने अपने बछड़े को जी-जान से चाट-चाटकर साफ़ किया। वह बार-बार अपनी जीभ से उसके शरीर को सहला रही थी। बछड़ा काँपते हुए अपने नन्हें पैरों पर खड़ा होने की कोशिश करता और बार-बार गिर जाता। हर बार माँ उसे अपनी गर्म साँसों से सहलाकर उठने की हिम्मत देती।
कुछ ही पलों में वह रिश्ता बन चुका था—माँ और बच्चे का, जिसे तोड़ने की हिम्मत कोई नहीं कर सकता।
पर यह खुशियाँ ज़्यादा देर तक नहीं टिकनी थीं।
सुबह जब मालिक आया, उसने देखा कि बछड़ा अपनी माँ का दूध पी रहा है। उसके चेहरे पर नाराज़गी थी। उसने मन ही मन हिसाब लगाया—"जितना दूध यह पी जाएगा, उतना कम बचेगा बेचने के लिए।"
उसने तुरंत एक रस्सी उठाई और बछड़े को खींचकर अलग बाँध दिया।
गाय ने जोर-जोर से रंभाना शुरू किया। उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। वह अपने शरीर को रस्सी में झोंककर बच्चे तक पहुँचने की कोशिश करती, लेकिन बाँध इतनी मजबूत थी कि वह एक कदम भी आगे न बढ़ सकी। बछड़ा भी चीख-चीखकर माँ की ओर भागना चाहता था, पर उसके नन्हें पैरों में ताकत कहाँ थी। वह गिरता, उठता, फिर कोशिश करता। उसकी छोटी-सी आवाज़ खलिहान में गूँज रही थी—"माँ… माँ…"
लेकिन इंसानी कानों ने उस आवाज़ को अनसुना कर दिया।
उन्हें तो बस दूध की बोतलों और पैसे की खनक सुनाई देती थी।
उस दिन से माँ और बच्चे के बीच अदृश्य दीवार खड़ी हो गई। माँ का दूध बहता, लेकिन बच्चे तक नहीं पहुँचता। बछड़ा भूख से रोता और माँ की आँखें उससे मिलने के लिए आसमान तक ताकतीं। उस खलिहान में हर दिन आँसुओं का सैलाब उमड़ता, पर किसी इंसान की संवेदना उसमें डूबने को तैयार न थी।
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