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The Inner Journey

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धूप आधी ढल चुकी थी। नदी किनारे पगडंडी पर दो आदमी चल रहे थे। एक बूढ़ा, सफ़ेद दाढ़ी, लाठी हाथ में, आँखों में गज़ब की शांति। दूसरा जवान, माथे पर पसीना, मन में ढेर सारे सवाल।

बाबा जी, आपसे एक बात पूछूँ?” जवान ने झिझकते हुए कहा।
पूछो, लेकिन आधा जवाब नहीं मिलेगा, पूरा सुनोगे तो ही समझ पाओगे।”

लोग कहते हैं ब्रह्मा, विष्णु, महेश ही सब कुछ हैं। लेकिन संत कहते हैं इनके ऊपर भी कोई परम सत्ता है। ये कैसे हो सकता है? अगर ये ही भगवान नहीं तो फिर भगवान कौन?”

बूढ़ा मुस्कुराया, “अच्छा, मान लो एक विशाल साम्राज्य है। उसमें तीन मंत्री हैं—पहला हर साल नई-नई इमारतें और सड़कें बनवाता है। दूसरा सबका खाना-पानी, सुरक्षा, फसल सबका ध्यान रखता है। तीसरा समय-समय पर पुरानी या टूट चुकी इमारतें गिरा देता है ताकि नई बन सके। तीनों अपने-अपने काम में माहिर, तीनों ज़रूरी।”

जवान ने तुरंत कहा, “ये तो ब्रह्मा, विष्णु, महेश की तरह हुए।”

हाँ,” बूढ़ा बोला, “लेकिन सोचो, ये तीनों मंत्री अपने-आप पैदा हो गए थे? या किसी ने इन्हें यह जिम्मेदारी दी?”

जवान कुछ पल चुप रहा, फिर बोला, “किसी ने दी होगी… ऊपर कोई राजा होगा।”

बूढ़ा ठहर गया। उसकी नज़रें नदी के बहते पानी पर टिक गईं। “राजा… पर सोच, उस राजा को किसने चुना? राजा के आने से पहले भी साम्राज्य तो था।”

जवान चौंका, “मतलब राजा भी किसी के आदेश पर है?”

बूढ़ा हल्का सा हंसा, “राजा भी उसी अदृश्य मालिक के अधीन है जिसने पूरा साम्राज्य खड़ा किया, जो न कभी पैदा हुआ, न कभी मरेगा। राजा और मंत्री तो समय के साथ बदलते रहते हैं, लेकिन असली मालिक… वो बदलता नहीं। उसे लोग परम सत्ता, ईश्वर, सतपुरुष, शब्द—जो चाहो कह लो—कहते हैं। उसके आदेश से ही मंत्री बनते हैं, काम करते हैं, और चले जाते हैं।”

जवान के चेहरे पर सवालों की लकीरें और गहरी हो गईं, “पर वो मालिक दिखता क्यों नहीं?”

बूढ़ा झुककर एक मुट्ठी पानी उठा लाया, “देख, नदी में पानी बह रहा है। मछली को पानी हर तरफ महसूस होता है, पर मछली पानी का चेहरा नहीं देख सकती। हम उसी मछली जैसे हैं—परम सत्ता में ही जीते हैं, सांस लेते हैं, काम करते हैं, लेकिन उसे छूने के लिए हमें भीतर उतरना पड़ता है।”

जवान एकदम रुक गया, जैसे उसकी सांस थम गई हो। “तो ब्रह्मा, विष्णु, महेश… ये मंत्री हैं, और परम सत्ता असली मालिक है?”

बूढ़ा मुस्कुराया, “न सिर्फ मालिक… बल्कि वह ज़मीन है जिस पर साम्राज्य खड़ा है, वह हवा है जिसमें सब सांस ले रहे हैं, वह नदी है जिसमें सब तैर रहे हैं। मंत्री आएंगे, जाएंगे… मालिक बदलेगा नहीं।”

नदी के उस पार सूरज पूरी तरह डूब चुका था। आसमान में लालिमा फैल गई थी। जवान की आँखों में अब वही लालिमा चमक रही थी—लेकिन उसमें उलझन नहीं, समझ थी। उसने धीमे से कहा, “अब समझ आया… मंत्रियों की पूजा करना ठीक है, पर मालिक को भुला दूँ, तो ये सबसे बड़ी बेवकूफी होगी।”

बूढ़े ने सिर्फ लाठी उठाई, और दोनों बिना कुछ कहे, उस मौन में डूबते चले गए जिसमें शायद वही परम सत्ता बोल रही थी।

सांझ गहराने लगी थी। नदी का पानी अब सुनहरी परछाइयों में बह रहा था। बूढ़ा और जवान दोनों अभी भी पगडंडी पर थे, लेकिन इस बार उनके कदम धीमे पड़ गए थे, जैसे बातचीत के बोझ से वक़्त भी ठहर गया हो।

जवान ने धीरे से कहा, “मालिक की बात तो समझ में आ गई, बाबा… लेकिन अगर वो इतना बड़ा है, इतना अदृश्य है, तो हम वहाँ तक पहुँचेंगे कैसे? उसकी चौखट का रास्ता कहाँ है?”

बूढ़ा हल्का सा मुस्कुराया, “बेटा, मालिक से मिलने के लिए दरवाज़ा ढूंढना बेकार है… क्योंकि उसका दरवाज़ा बाहर नहीं, अंदर है।”

जवान ने हैरानी से देखा, “अंदर?”

बूढ़ा नदी के बहाव को निहारते हुए बोला, “ये बहाव सुन… इसमें एक हल्की-सी गूँज है, नाद है। जैसे पहाड़ों में दूर बजता हुआ कोई बाजा सुनाई देता है, वैसे ही तेरे भीतर एक आवाज़, एक लहर, एक धुन लगातार चल रही है। यही ‘शब्द’ है—मालिक की अपनी पहचान, उसका सिग्नल।”

जवान ने कान लगाकर नदी की आवाज़ सुनने की कोशिश की, पर अंदर की आवाज़? वह तो बिल्कुल अनजानी थी।
पर मुझे तो कुछ नहीं सुनाई दे रहा,” उसने कहा।

बूढ़ा हल्के स्वर में बोला, “क्योंकि तेरे कान बाहर के बाज़ार में लगे हैं—लोगों की बातों में, शोर-शराबे में। जब कान अंदर की तरफ मुड़ेंगे, तो तुझे वही अनाहत नाद सुनाई देगा। यही वह डोर है जो सीधे मालिक तक जाती है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश—ये सब उस डोर से ही आदेश लेते हैं, जैसे एक बड़े महल में तीनों मंत्री एक ही फ़ोन लाइन से आदेश पाते हों।”

जवान की आँखें चौड़ी हो गईं, “तो मतलब, जो इस ‘शब्द’ को पकड़ लेता है, वह सीधे मालिक से जुड़ जाता है?”

बूढ़ा थमकर उसकी तरफ मुड़ा, “हाँ बेटा। तब उसे मंत्रियों से होकर गुजरने की ज़रूरत नहीं। जैसे मछली को अगर धारा का सही रुख मिल जाए, तो वो बिना भटके सीधे सागर तक पहुँच जाती है।”

जवान ने पहली बार गहरी सांस ली। उसे लगा जैसे हवा भी कोई धीमा-सा गीत गा रही हो, जो वह पहले कभी सुन नहीं पाया था। दूर कहीं मंदिर की घंटी बजी, पर उसके कानों में अब नदी के बहाव के नीचे कोई और ही धुन तैर रही थी।

बाबा… क्या ये वही है?” उसने लगभग फुसफुसाकर पूछा।
बूढ़े की मुस्कान में जैसे पूरी नदी का रहस्य समा गया, “अगर तूने सुन लिया है, तो समझ ले, मालिक ने तुझे अपने महल में बुलाना शुरू कर दिया है।”

दोनों आगे बढ़े। आकाश अब गहरा नीला था, और कहीं दूर, बिना बादल के, एक तारा टिमटिमा रहा था—शायद वही, जहाँ से सारी डोरें जुड़ती हैं।

अगली सुबह धुंध हल्की-हल्की खेतों में लिपटी थी। जवान की आँखें पूरी रात नहीं लगीं। नदी किनारे बाबा के शब्द बार-बार कानों में गूँज रहे थे—मालिक का दरवाज़ा बाहर नहीं, अंदर है… शब्द ही डोर है…”

उसने जल्दी-जल्दी अपना काम निपटाया और सीधे बाबा के घर पहुँच गया।

बाबा, मैं तैयार हूँ… मुझे वो डोर पकड़नी है,” जवान ने दृढ़ स्वर में कहा।

बूढ़ा उसे ऊपर-नीचे देखता रहा, फिर धीरे से बोला, “तैयार? डोर पकड़ना खेल नहीं है बेटा। यह आँखें बंद करने से शुरू होती है, लेकिन रास्ता तेरे भीतर के जंगल से गुजरता है—जहाँ इच्छाएँ, डर, और पुरानी आदतें तेरे पैर पकड़ लेंगी।”

तो मैं हार जाऊँगा?” जवान की आवाज़ में हल्का-सा डर था।

बाबा ने लाठी जमीन पर ठोकी, “नहीं, अगर तू सच में चाहता है, तो नहीं। याद रख—त्रिमूर्ति, देवता, स्वर्ग—ये सब तेरे रास्ते में आएँगे। वे सुंदर भी हैं, आकर्षक भी, पर मालिक के महल से छोटे हैं।”

मतलब?”

मतलब, जैसे कोई यात्री रास्ते में बने बाग़ में रुककर सोच ले कि यह ही मंज़िल है… तो वह कभी महल तक नहीं पहुँचेगा। त्रिमूर्ति बाग़ के रखवाले हैं—वे खेत सींचते हैं, व्यवस्था चलाते हैं, लेकिन मालिक का असली सिंहासन उनकी सीमा के बाहर है।”

जवान की आँखें चमक उठीं, “तो ‘शब्द’ इस सीमा को पार कराता है?”

बाबा ने मुस्कुराकर सिर हिलाया, “हाँ। यह ऐसे है जैसे तू एक विशाल दुर्ग में है, चारों तरफ दरवाज़े हैं, पहरेदार हैं… लेकिन तेरे हाथ में मालिक का लिखा हुआ एक गुप्त नक्शा है। ‘शब्द’ वही नक्शा है—जिसे पढ़ने वाला सीधे मुख्य द्वार तक पहुँच सकता है।”

दोनों ने नदी की तरफ रुख किया। बाबा ने कहा, “आज हम बैठेंगे… तू आँखें बंद कर, साँसों को शांत कर, और कानों को भीतर की तरफ मोड़। बाहर की आवाज़ों को भूल जा।”

जवान ने वैसा ही किया। पहले उसे सिर्फ़ नदी की धारा, पक्षियों की चहचहाहट, और दूर कहीं बैलों की घंटियों की आवाज़ सुनाई दी। पर कुछ देर बाद… कुछ और था—एक बेहद हल्की, लगातार बहती हुई धुन… जैसे बहुत दूर से कोई बुला रहा हो।

उसका दिल तेज़ हो गया, उसने आँखें खोल दीं, “बाबा… मैंने सुना! जैसे… जैसे कोई अंदर गा रहा हो…”

बाबा की आँखें नम हो गईं, “बस बेटा… यही है पहला कदम। तूने मालिक का संदेश पकड़ लिया। अब इसका पीछा कर, यह तुझे उन दरवाज़ों से भी आगे ले जाएगा, जहाँ त्रिमूर्ति भी पहुँचने से पहले रुक जाती हैं।”

जवान ने महसूस किया—उसके भीतर कुछ जाग गया है। अब गाँव का शोर, खेत की थकान, और रोज़मर्रा की चिंता सब धुंधली-सी लग रही थी। उसे पता था—उसकी असली यात्रा आज से शुरू हुई है।

दूर आकाश में वही तारा फिर टिमटिमा रहा था… और इस बार, उसे लगता था कि तारा मुस्कुरा रहा है।

शाम ढल चुकी थी। आसमान पर लाल-नारंगी रंग बिखरे थे और गाँव के किनारे वही पुराना पीपल का पेड़, जिसके नीचे बाबा और जवान बैठा करते थे, आज कुछ और ही गंभीर लग रहा था।

बाबा ने कहा, “बेटा, आज तू उस रास्ते पर जाएगा जहाँ बहुत लोग डर के मारे वापस लौट आते हैं।”

जवान ने दृढ़ स्वर में जवाब दिया, “मैं लौटने नहीं आया, बाबा। मैंने मालिक को देखना है।”

बाबा ने अपनी झोली से एक पुरानी माला निकाली। “ये सिर्फ़ याद दिलाने के लिए है… कि तेरे पास ‘शब्द’ की डोर है। अब आँखें बंद कर… और सुन।”

जवान ने आँखें बंद कीं। शुरू में वही धीमी-सी धुन आई जो कल सुनी थी। फिर अचानक… वह धुन तेज़ होने लगी, जैसे किसी ने भीतर दरवाज़ा खोला हो।

उसे लगा वह अब शरीर में नहीं है। वह एक चमकदार रास्ते पर चल रहा है—रास्ते के दोनों ओर बाग़ हैं, जिनमें ब्रह्मा, विष्णु और महेश जैसे अद्भुत तेज़ वाले देव खड़े हैं। उनके चेहरे मुस्कुराते हैं, हाथ आशीर्वाद में उठे हुए हैं।

ब्रह्मा बोले, “यात्री, यहीं ठहर जा। यहाँ ज्ञान है।”
विष्णु ने कहा, “यहीं प्रेम और पालन है।”
महेश ने गरजकर कहा, “यहीं मुक्ति है।”

जवान ठिठक गया। दृश्य इतना सुंदर था कि कदम रुकने लगे। तभी उसके कानों में बाबा की आवाज़ गूँजी—बाग़ मंज़िल नहीं है… डोर पकड़।”

उसने फिर उस धुन को सुना। और जैसे ही ध्यान धुन पर गया, त्रिमूर्ति के रूप धीरे-धीरे धुंध में बदलने लगे, और वह आगे बढ़ गया।

अब वह एक विशाल किले के सामने था—दीवारें इतनी ऊँची कि अंत दिखे ही नहीं। किले के दरवाज़े पर कोई मूर्ति, कोई नाम, कोई प्रतीक नहीं था… सिर्फ़ वही धुन, और अब वह इतनी साफ़ थी जैसे कोई सीधे उसके दिल में गा रहा हो।

जैसे ही वह दरवाज़े में दाख़िल हुआ, सब कुछ बदल गया। न रोशनी, न अंधेरा—बस एक अंतहीन शांति, जिसमें हर सवाल का जवाब पहले से मौजूद था। न कोई रूप, न कोई नाम… लेकिन फिर भी ऐसा महसूस हो रहा था जैसे कोई उसे गले लगा रहा हो।

एक अनकहा संवाद हुआ—
जवान:तू कौन है?”
स्वर: मैं वह हूँ, जिससे त्रिमूर्ति भी आदेश लेती हैं। मैं ही ब्रह्मा की सृजन शक्ति, विष्णु का पालन, और महेश का संहार हूँ… और मैं उनसे भी आगे हूँ।”
जवान:तू भगवान है?”
स्वर:भगवान नाम है… मैं नाम से भी परे हूँ। मैं वह हूँ, जिसे तू महसूस कर सकता है, लेकिन देख नहीं सकता। मैं ही शब्द हूँ, और शब्द के पार की शांति भी।”

जवान की आँखों से आँसू बह निकले। उसे समझ आ गया—ब्रह्मा, विष्णु, महेश एक व्यवस्था हैं, लेकिन मालिक… ‘परम सत्ता’… वह कुछ और है—असीम, निराकार, और सबके भीतर।

जब उसने आँखें खोलीं, बाबा उसे देख रहे थे।
देख आया?” बाबा ने पूछा।
जवान ने सिर झुकाया, “हाँ… अब मुझे समझ आ गया कि असली मालिक तक जाने का रास्ता सिर्फ़ मंदिर या मूर्ति में नहीं, बल्कि ‘शब्द’ की डोर में है।”

बाबा हँसे, “यही ज्ञान है बेटा—जो पाता है, उसके लिए जीवन कभी पहले जैसा नहीं रहता।”

उस दिन के बाद, जवान बदल गया। वह पूजा करता, लेकिन जानता था कि मूर्ति से आगे भी एक दुनिया है। और वह दुनिया… सिर्फ़ सुनने वालों को सुनाई देती है।

 

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