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शब्द की खोज-एक आध्यात्मिक यात्रा

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शाम का समय था। गाँव के बाहर फैला नीला आसमान, और उसके नीचे बहती हुई पुरानी नदी… हवा में ठंडक थी, पेड़ों के पत्ते हल्के-हल्के हिल रहे थे। नदी किनारे पीपल का विशाल पेड़, जिसकी जड़ें मानो धरती के दिल तकजाती हों, और शाखाएँ आसमान को छूने की कोशिश करती हों।

उसकी छाँव में बैठे थे—एक सफ़ेद दाढ़ी वाला, झुर्रियों में छिपी हज़ारों कहानियों का मालिक, और उसके सामने एक 25-26 साल का जवान, जिसके चेहरे पर थकान, उलझन और बेचैनी साफ़ झलक रही थी।

जवान (बेचैनी से): “बाबा… मैं हर जगह गया। मंदिरों में, आश्रमों में, ग्रंथों में… हर कोई अलग बात कहता है। बचपन से सुनता आया हूँ — ब्रह्मा, विष्णु, महेश ही सब कुछ हैं। कोई कहता है, इनके ऊपर भी कोई परम सत्ता है। मैं समझ नहीं पाता… कौन सच है? मुझे सच चाहिए—साफ़, सीधा और पूरा सच।”

साधु ने मुस्कुराकर उसकी ओर देखा।

बाबा (धीरे मुस्कुराते हुए): “सच किताब में नहीं, बेटे… वह तेरे भीतर छुपा है। लेकिन तेरी आँखें बाहर देखने की आदी हो चुकी हैं। चल, तेरी आँखें पलटकर भीतर की ओर करवाता हूँ।”

साधु: अगर सच जानना है, तो सिर्फ सुनना नहीं पड़ेगा, देखना भी पड़ेगा।

अर्जुन: देखना? क्या मतलब?

साधु: चलो, मैं तुम्हें यात्रा पर ले चलता हूँ… पर ध्यान रहे, ये रास्ता तुम्हारे अंदर भी है और बाहर भी।

पहला पड़ाव – सृजन का लोक

कुछ ही पल में अर्जुन को लगा जैसे ज़मीन गायब हो गई, और वे दोनों एक विशाल, सुनहरी आकाश में खड़े हैं। हर तरफ़ असीम रोशनी, बीच में एक दिव्य पुरुष — चार मुख, हाथों में वेद, कमल, और माला।

साधु: ये ब्रह्मा हैं — सृष्टि के निर्माता।

ब्रह्मा (गंभीर स्वर में): मैं बीज बोता हूँ, रूप देता हूँ। पर मैं मालिक नहीं, मैं तो आदेश पाकर काम करता हूँ।

अर्जुन चौंक गया, “आदेश? किससे?”

ब्रह्मा बस मुस्कुराए, “आगे बढ़ो, तुम जान जाओगे।”

दूसरा पड़ाव – पालन का लोक

अब वे एक हरे-भरे, जीवन से भरे लोक में पहुँचे। नदियाँ, खेत, फूलों की खुशबू, और बीच में खड़े विष्णु — शांत, गहरी आँखों वाले।

विष्णु: मैं जो है, उसे टिकाए रखता हूँ। सृष्टि संतुलित रहे, यही मेरा काम है।

अर्जुन: तो क्या आप ही सर्वोच्च हैं?

विष्णु: अगर मैं पानी हूँ, तो कोई और है जो बादल बनाता है, बरसाता है। मैं धारा को संभालता हूँ, पर स्रोत मेरा नहीं। आगे जाओ।

तीसरा पड़ाव – संहार का लोक

अचानक दृश्य बदल गया। चारों तरफ़ गहरे बादल, बिजली, और एक ऊँचे पर्वत पर ध्यानमग्न महेश। गले में सर्प, त्रिशूल हाथ में, आँखों में भयानक और करुणा का अजीब मिश्रण।

महेश: जब समय पूरा होता है, मैं मिटा देता हूँ… ताकि नया जन्म हो सके।

अर्जुन: तो क्या आप अंत हैं?

महेश (मुस्कुराकर): अंत भी एक शुरुआत है, बेटा। और मैं भी किसी के आदेश से ही चलता हूँ। उस तक पहुँचोगे, तो जानोगे मैं भी उसकी लीला का हिस्सा हूँ।

चौथा पड़ाव – शून्य और शब्द

अब अर्जुन और साधु एक अंधकारमय, विशाल शून्य में खड़े थे। न आकाश, न धरती। सिर्फ़ एक धीमी, अनजानी धुन — जैसे भीतर से आ रही हो।

अर्जुन (घबराकर): ये क्या है?

साधु: यही “शब्द” है — परम सत्ता का पहला प्रकट रूप। इससे ही त्रिमूर्ति बनी, ब्रह्मांड बना, समय और स्थान बने। यह न जन्म लेता है, न मरता है।

अर्जुन: तो परम सत्ता वही है जो इस शब्द के पीछे है?

साधु: हाँ। शब्द तो उसकी सांस है, पर वह… वह तो अनंत है।

अंतिम पड़ाव – परम सत्ता

अचानक वह धुन और गहरी हो गई, और अर्जुन ने खुद को एक ऐसे प्रकाश में पाया जिसे देखकर आँखें बंद हो जातीं, पर मन खोलने को मजबूर हो जाता। वहाँ न रूप था, न नाम, न समय। बस अनुभव… कि सब कुछ उसी से है, उसी में है, और वही सब कुछ है।

परम सत्ता की आवाज़ (भीतर से): ब्रह्मा मेरा सृजन करता है, विष्णु मेरा पालन, महेश मेरा रूप बदलता है। पर मैं… मैं न शुरुआत हूँ, न अंत। मैं वह हूँ जिसे कोई बाँध नहीं सकता।

अर्जुन की आँखों से आँसू बहने लगे।

अर्जुन: अब समझ गया… मूर्तियाँ, नाम, काम — सब साधन हैं। असली मालिक वह है, जो सबको चला रहा है।

साधु ने उसका कंधा थपथपाया, “और बेटा, यह मालिक बाहर भी है, भीतर भी। अगर उसे पाना है, तो इस शब्द को पकड़ो और अपने भीतर जाओ।”

गाँव लौटते समय अर्जुन का चेहरा पहले जैसा नहीं था। उसमें अब बेचैनी नहीं, बल्कि एक गहरा संतोष और उत्सुकता थी — अपने भीतर उस शब्द को खोजने की।


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