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शहर के एक साधारण से मोहल्ले में एक दंपत्ति रहते थे – नीरज और संध्या। नीरज एक सरकारी दफ्तर में काम करता था। उसकी नौकरी स्थिर थी, आमदनी ठीक-ठाक थी, और जीवन शांत और व्यवस्थित। संध्या गृहिणी थी। दोनों का घर छोटा था लेकिन प्यार और अपनापन बड़ा।
संध्या का मायका और उसका जुड़ाव
संध्या अपने मायके से बहुत जुड़ी हुई थी। माँ बूढ़ी हो चुकी थीं और दोनों भाई अब भी उसके सुझावों के बिना कोई बड़ा कदम नहीं उठाते थे। भाभियाँ भी कभी-कभी मन की बातें उसे ही सुनाती थीं। संध्या परिवार की सबसे समझदार सदस्य मानी जाती थी।
इसलिए दिन में कई बार फोन की घंटी बज जाती।
कभी भाई पूछता – “दीदी, मुझे नौकरी बदलनी चाहिए या नहीं?”
कभी माँ कहतीं – “बिटिया, डॉक्टर ने दवा बदल दी है, जरा देख तो लेना।”
भाभी कभी बच्चों की पढ़ाई का झगड़ा बतातीं, तो कभी घर के छोटे-मोटे तनाव साझा करतीं।
संध्या सबको ध्यान से सुनती। वह हिम्मत भी देती, सलाह भी। उसे लगता था कि उसकी बातें सुनकर सबको सुकून मिलता है।
नीरज का मौन मन
नीरज भी शुरू में यह देखकर खुश होता। उसे लगता – “मेरी पत्नी सबकी कितनी प्यारी है। उसके बिना सब अधूरे लगते हैं। अच्छा है कि वह मायके से जुड़ी रहती है।”
लेकिन धीरे-धीरे एक बात उसके दिल में घर करने लगी।
जब वह थककर दफ्तर से लौटता, चाहता कि पत्नी से आराम से दो बातें करे, चाय के साथ दिन की थकान उतारे – तभी फोन बज जाता। कभी आधे घंटे, कभी पूरा घंटा, बातों का सिलसिला चलता रहता। नीरज चुपचाप टीवी ऑन कर लेता या अख़बार पढ़ने लगता। बाहर से वह कुछ नहीं कहता, लेकिन भीतर एक खालीपन महसूस करता।
उसके मन में सवाल उठता –
“क्या संध्या दो-दो परिवारों की जिम्मेदारी उठा रही है? क्या यह बोझ धीरे-धीरे उसे थका नहीं देगा? और क्या हमारे बीच का समय ऐसे ही फोन कॉल्स में खो जाएगा?”
संध्या का दृष्टिकोण
उधर संध्या की सोच अलग थी। वह मायके की पुकार को बोझ नहीं मानती थी। उसके लिए यह कर्तव्य था।
वह सोचती – “जब तक मैं हूँ, माँ और भाई-बहन मुझे याद करते हैं। जब मेरी बातें सुनकर उन्हें राहत मिलती है, तो यह मेरे लिए खुशी की बात है। आखिर इंसान का रिश्ता सिर्फ पति और बच्चों तक सीमित तो नहीं होता।”
लेकिन कभी-कभी उसे भी लगता कि समय ज़्यादा खर्च हो जाता है। कई बार खाना अधूरा रह जाता, कभी नीरज की नींद खराब हो जाती, कभी खुद का आराम छिन जाता। मगर फिर भी, रिश्तों की मोहब्बत में वह अपनी सीमाएँ भूल जाती।
टीवी देखते समय
नीरज और संध्या रात का खाना खाकर सोफ़े पर बैठ गए थे। दोनों एक साथ पुरानी फ़िल्म देख रहे थे और बीच-बीच में हँसकर डायलॉग दोहराते। तभी फोन की घंटी बजी।
संध्या ने मुस्कुराते हुए कहा – “अरे, मज़ेदार सीन शुरू हुआ है, लेकिन ज़रा सुन लूँ।”
कॉल आधे घंटे तक चलता रहा। नीरज चुपचाप टीवी देखते रहे, मगर हँसी आधी रह गई।
हल्की-फुल्की बातचीत
रात का सन्नाटा था। नीरज ने कहा – “याद है, शादी के बाद पहली बार हम शिमला गए थे? कितनी ठंड थी।”
दोनों पुरानी बातें याद करके हँस रहे थे। तभी फोन बजा। संध्या ने कहा – “एक मिनट, शायद माँ होंगी।”
बातें इतनी लंबी चलीं कि जब तक कॉल खत्म हुआ, पुरानी यादों की मिठास खो चुकी थी।
चाय के साथ समय
शाम को दोनों बालकनी में चाय पी रहे थे। हल्की ठंडी हवा चल रही थी। नीरज ने कहा – “आज ऑफिस में बड़ा मज़ेदार किस्सा हुआ…” और किस्सा शुरू ही किया था कि फोन बज उठा।
संध्या उठ गई और उधर लग गई। नीरज की अधूरी कहानी वहीं रह गई।
घूमने की योजना
संडे की शाम थी। दोनों बैठकर सोच रहे थे – “अगले महीने कहीं घूमने चलें?”
नीरज उत्साह से विकल्प बता रहा था – “ऋषिकेश चलें या उदयपुर?”
तभी फोन आया। संध्या का ध्यान उधर लग गया। जब वापस आई, तो योजना का उत्साह ठंडा पड़ चुका था।
शांत बातचीत
उस रात, जब दोनों साथ बैठे, नीरज ने धीरे से कहा –
“संध्या, मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूँ। बुरा मत मानना।”
संध्या ने तुरंत ध्यान से देखा – “हाँ, कहो।”
नीरज ने शब्द बहुत सोच-समझकर चुने।
“मुझे अच्छा लगता है कि तुम अपने परिवार से जुड़ी हो। यह तुम्हारा प्यार है। लेकिन मुझे डर है कि कहीं तुम धीरे-धीरे थक न जाओ। तुम हर बार सबकी समस्या अपने सिर पर ले लेती हो। मुझे लगता है, यह तुम्हारी शांति छीन सकता है… और कहीं न कहीं, हमारे साथ बिताया समय भी।”
संध्या कुछ पल चुप रही। उसके चेहरे पर हल्की मुस्कान आई।
“तुम्हें सच कहूँ तो कभी-कभी मुझे भी लगता है कि बातें लंबी हो जाती हैं। पर मैं इसे बोझ नहीं मानती। बस, तुम्हारी यह चिंता देखकर अच्छा लगा कि तुम मेरी थकान को भी सोचते हो। शायद सचमुच मुझे अपनी सीमाएँ तय करनी चाहिए।”
नीरज को लगा जैसे उसके मन का बोझ हल्का हो गया।
धीरे-धीरे बदलाव
इसके बाद संध्या ने अपने व्यवहार में छोटे-छोटे बदलाव किए।
अगर वह काम में होती और फोन बजता, तो तुरंत उठाने के बजाय बाद में कॉल करती।
अगर बातें लंबी होने लगतीं, तो मुस्कुराकर कह देती – “ठीक है, बाकी कल बताना।”
और जब कोई गंभीर समस्या बताई जाती, तो वह केवल सलाह देती, लेकिन जिम्मेदारी परिवार पर छोड़ देती – “मैंने अपनी राय दे दी, अब तुम लोग देखो।”
धीरे-धीरे उसके मायके वालों ने समझ लिया कि बेटी/बहन हमेशा तुरंत उपलब्ध नहीं रह सकती। उन्होंने भी समय देखकर फोन करना शुरू कर दिया। कई बार छोटी बातें वे मैसेज पर ही लिख देते।
संतुलन की ओर
अब नीरज और संध्या दोनों को सुकून मिला।
संध्या अब भी अपने परिवार का सहारा थी।
लेकिन उसने अपने घर और अपने समय की शांति भी संभाल ली।
नीरज को लगा कि उसकी चिंता व्यर्थ नहीं थी, और संध्या की समझदारी ने इसे सुंदर ढंग से सुलझा दिया।
दोनों का रिश्ता और मजबूत हो गया। अब फोन कॉल्स उनके बीच दीवार नहीं बने, बल्कि रिश्तों की मिठास बनाए रखने का जरिया भर रह गए।
गहराई से संदेश
इस पूरे अनुभव ने नीरज और संध्या दोनों को एक बड़ी सीख दी –
रिश्ते कभी भी तोड़ने से नहीं, बल्कि सीमाएँ तय करने से संतुलित रहते हैं।
प्यार का मतलब यह नहीं कि हर पल हम उपलब्ध रहें। प्यार का मतलब है – दूसरों का सहारा बनें, लेकिन खुद की शांति और अपने घर की लय भी बचाए रखें।
परिवारों को भी यह समझना चाहिए कि कोई इंसान 24 घंटे उपलब्ध नहीं रह सकता। अगर वह मदद करता है तो यह उसकी दया और अपनापन है, उसका कर्तव्य नहीं।
दिन गुज़रते गए। अब भी फोन आते, अब भी बातें होतीं, लेकिन सब सीमित और संतुलित।
संध्या का मायका खुश था कि वह अब भी उनके साथ है।
नीरज खुश था कि अब उसकी पत्नी थकती नहीं, और उनका निजी जीवन सुरक्षित है।
और सबसे सुंदर बात – पति-पत्नी का रिश्ता और भी गहरा हो गया, क्योंकि उन्होंने मिलकर समझदारी से एक कठिनाई का हल निकाला।
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