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मनुष्य जीवन

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मनुष्य जीवन को शास्त्रों में सबसे दुर्लभ कहा गया है। 84 लाख योनियों में भटकती हुई आत्मा को जब मानव शरीर मिलता है तो यह अवसर केवल साधारण जन्म नहीं होता, बल्कि यह एक विशेष वरदान है। यह वह अवसर है जब आत्मा चाहे तो अपने पाप-पुण्य का लेखा-जोखा सुधार सकती है, अपने कर्मों को पवित्र बना सकती है और जन्म–मृत्यु के अंतहीन चक्र से मुक्ति पा सकती है।

हिंदू धर्मग्रंथों में मृत्यु के बाद आत्मा की यात्रा का वर्णन अत्यंत गहन और चित्रात्मक रूप में मिलता है। मृत्यु के 13 दिनों तक आत्मा अपने परिवार के इर्द-गिर्द मंडराती है। उसे मोह होता है, उसे अपनों की याद आती है, और वह चाहकर भी उनसे संपर्क नहीं कर पाती। इस अवधि में परिवार द्वारा किए गए श्राद्ध, तर्पण और दान उसके लिए मार्गदर्शक की तरह काम करते हैं। 13वें दिन के बाद यमदूत आत्मा को लेकर यमराज के दरबार की ओर निकलते हैं।

यात्रा का पहला बड़ा पड़ाव वैतरणी नदी है। यह नदी आत्मा के लिए उसकी सच्चाई उजागर करती है। जिसने पुण्य किए हों, उसके लिए वैतरणी निर्मल जल की धारा बन जाती है, आत्मा इसे गाय की पूँछ पकड़कर सहजता से पार कर लेती है। लेकिन जिसने पाप किए हों, उसके लिए यह नदी रक्त, मवाद और गंदगी से भरी हुई, मगरमच्छों और सांपों से लबालब एक भयंकर सागर बन जाती है। वहाँ आत्मा छटपटाती है, रोती है और हर ओर उसे अपने ही पापों का परिणाम काटने वाले जीवों के रूप में मिलता है।

गरुड़ पुराण में नरक की यातनाओं का विस्तृत वर्णन है। आत्मा अपने किए गए पापों के अनुसार अलग-अलग नरकों में भेजी जाती है। कहीं आग की नदियाँ हैं, कहीं बर्फ की चोटियाँ, कहीं जलते हुए तेल के कड़ाहे, कहीं लोहे के यंत्र। वहाँ आत्मा को वैसे ही कष्ट मिलते हैं जैसे उसने दूसरों को दिए थे। जिसने हिंसा की, वह हिंसा झेलता है; जिसने छल किया, उसे छल का दंश मिलता है; जिसने लोभ और लालच से दूसरों का अधिकार छीना, वह दारुण अभाव में तड़पता है। इन सब यातनाओं का उद्देश्य केवल दंड देना नहीं है, बल्कि आत्मा को यह अहसास कराना है कि कर्मों का फल अटल है और किसी से छिपाया नहीं जा सकता।

पुण्यात्मा आत्मा स्वर्ग में जाती है। वहाँ सुंदर उद्यान, मधुर संगीत, दिव्य वायु, और अपार आनंद का अनुभव होता है। लेकिन यह भी स्थायी नहीं है। जब तक पुण्य का भंडार रहता है, आत्मा स्वर्ग का आनंद लेती है। पुण्य समाप्त होते ही उसे पुनः जन्म लेना पड़ता है। यही बात नरक के साथ भी है। पाप का भंडार समाप्त होते ही आत्मा पुनः किसी योनि में जन्म ले लेती है।

यह चक्र यूँ ही चलता रहता है। आत्मा 84 लाख योनियों में भटकती रहती है। कभी वह पक्षी बनती है, कभी पशु, कभी कीट-पतंग, कभी जलचर। इन योनियों में सुख-दुख दोनों हैं, लेकिन उनमें से कोई भी स्थायी नहीं। केवल मनुष्य योनि ही ऐसी है जहाँ आत्मा अपने कर्म सुधार सकती है, धर्म कर सकती है और मोक्ष की ओर बढ़ सकती है।

मोक्ष आत्मा की अंतिम मंज़िल है। जब आत्मा अपने कर्मबंधनों, इच्छाओं और मोह से मुक्त हो जाती है, तब उसे पुनर्जन्म नहीं लेना पड़ता। वह परमात्मा में विलीन हो जाती है। शास्त्रों ने कहा है कि नरक और स्वर्ग अस्थायी हैं, केवल मोक्ष शाश्वत है।

अब प्रश्न यह है कि मोक्ष की प्राप्ति कैसे हो? गीता कहती है कि अपने कर्तव्यों को निस्वार्थ भाव से करो, कर्म के फल की चिंता मत करो। उपनिषद बताते हैं कि आत्मा को जानो, क्योंकि तुम शरीर नहीं हो, तुम चैतन्य हो। भक्ति मार्ग कहता है कि परमात्मा में प्रेम और विश्वास रखो, वही तुम्हें बंधन से मुक्त करेगा। सभी मार्ग एक ही सत्य की ओर ले जाते हैं कि आत्मा को मोह, अहंकार, लोभ और क्रोध से मुक्त होना होगा और दया, करुणा, सत्य और धर्म से युक्त जीवन जीना होगा।

मनुष्य अक्सर सोचता है कि मरने के बाद क्या होगा। लेकिन शास्त्र हमें सिखाते हैं कि मरने के बाद वही होगा जो जीते-जी किया गया है। आत्मा के सामने कोई झूठ, कोई बहाना, कोई छल काम नहीं आता। वहाँ केवल कर्म साथ जाते हैं। न धन, न पद, न परिवार, न प्रतिष्ठा – केवल और केवल कर्म।

इसलिए यह जीवन हमारे लिए साधना का अवसर है। यदि हम चाहते हैं कि मृत्यु के बाद वैतरणी नदी हमारे लिए शीतल जल बन जाए, तो हमें आज ही ऐसे कर्म करने होंगे जिससे हमारी आत्मा हल्की हो। यदि हम नहीं चाहते कि नरक की यातनाएँ हमारा इंतजार करें, तो हमें हिंसा, छल, क्रोध और लालच से दूर रहना होगा। यदि हम चाहते हैं कि आत्मा जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त होकर शांति पाए, तो हमें अपने जीवन को धर्म, भक्ति और सदाचार से भरना होगा।

जीवन क्षणभंगुर है। मृत्यु निश्चित है। लेकिन मृत्यु का मार्ग कैसा होगा, यह हमारे अपने कर्म तय करते हैं। यही वह शिक्षा है जो गरुड़ पुराण, गीता और उपनिषद हमें देते हैं। नरक और स्वर्ग केवल चेतावनी और प्रलोभन नहीं हैं, बल्कि हमें यह दिखाने के साधन हैं कि हमारे कर्म ही हमारी नियति लिखते हैं।

इसलिए, हे मानव, अपने जीवन को व्यर्थ मत करो। इसे लोभ, वासना और क्रोध में मत गँवाओ। इसे दया, सेवा, करुणा और सत्य में लगाओ। जब तक सांस है, अच्छे कर्म करो, जीव-जंतु और मनुष्यों पर दया करो, अनावश्यक हिंसा से बचो, भोजन और संसाधनों की कदर करो, और ईश्वर का स्मरण करो। यही वह मार्ग है जिससे मृत्यु के बाद की यात्रा सरल होगी और अंततः आत्मा परम शांति, मोक्ष की ओर बढ़ सकेगी।

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