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जीवन और इच्छाएँ

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ज़िंदगी अजीब है। कभी किसी चीज़ के लिए इतना तड़पता है मन कि नींद उड़ जाती है, और जब वही चीज़ मिल जाती है, तो मन के किसी कोने में एक अनकही ऊब बस जाती है। ऐसा लगता है जैसे उस चाहत के साथ कुछ खत्म हो गया — शायद प्रतीक्षा का आनंद, शायद उस अधूरेपन की मिठास, शायद वो बेचैनी जो किसी तरह की जीवंतता देती थी।

हर इंसान की ज़िंदगी में ऐसा एक नहीं, कई बार होता है। बचपन से ही हम चीज़ों के पीछे भागना सीखते हैं — खिलौनों से शुरू होकर पहचान तक। पहले हमें एक साइकिल चाहिए होती है, फिर मोटरबाइक, फिर कार, फिर बड़ी कार, और फिर एक ऐसी जगह जहाँ कोई हमें तंग न करे। हर बार लगता है कि अब मिल जाए तो चैन मिल जाएगा। और हर बार चैन थोड़ा और दूर चला जाता है।

शुरुआती दिनों में वो चाहतें कितनी मासूम होती हैं। दिल में एक छोटी सी उम्मीद कि अगर मुझे यह मिल गया, तो सब सही हो जाएगा। मन का विश्वास इतना सच्चा होता है कि दुनिया की कोई ताकत उसे झूठा नहीं लगती। हम अपने भीतर पूरे जोश से दौड़ लगाते हैं — मेहनत करते हैं, त्याग करते हैं, सपने देखते हैं। और जब आखिरकार वो चीज़ हमारे हाथ में आती है, हम कुछ पल के लिए जैसे सातवें आसमान पर होते हैं। हर चीज़ चमकती है, हर मुस्कान सच्ची लगती है, हर दिन में कुछ नया आकर्षण होता है।

लेकिन कुछ दिनों बाद, वही चीज़ अब उतनी नई नहीं रहती। वो मोबाइल जिसकी पैकिंग खोलते हुए दिल धड़क रहा था, अब बस नोटिफिकेशन का बोझ बन जाता है। वो घर, जिसके नक्शे में हमने अपने सपनों की धूप डाली थी, अब सफाई और बिजली बिलों की चिंता का दूसरा नाम बन जाता है। वो नौकरी, जो जीवन का लक्ष्य लगती थी, अब रूटीन बन गया है। और धीरे-धीरे एहसास होता है — चीज़ें नहीं, हम ही बदल गए हैं।

यह बदलाव धीरे-धीरे होता है। पहले हम खुश रहने की कोशिश करते हैं, खुद को समझाते हैं कि यह सब सामान्य है। फिर एक दिन किसी सुबह उठकर अचानक मन कहता है — “अब मन नहीं करता।” किसी चीज़ को देखने का मन नहीं करता, उसी काम पर जाने का मन नहीं करता, उन्हीं बातों को दोहराने का मन नहीं करता। और यही वह पल होता है जब इंसान पहली बार भीतर से थकने लगता है।

थकान शरीर की नहीं होती, चाहत की होती है। वो चाहत जो कभी जीवन का ईंधन थी, अब बोझ बन चुकी होती है। वो चीज़ें जो कभी प्रेरणा थीं, अब जिम्मेदारी बन जाती हैं। वो लोग, जिनके साथ हम हँसते थे, अब हमें जाँचते हैं — “तुम खुश क्यों नहीं हो?” लेकिन हम जवाब नहीं दे पाते, क्योंकि खुद को भी नहीं पता कि दुख किस बात का है।

धीरे-धीरे समझ में आता है कि शायद दुख किसी चीज़ के न मिलने का नहीं, बल्कि किसी चीज़ के मिल जाने का है। क्योंकि जो चाहत हमें चलाती थी, वो पूरी हो गई। अब हम खाली हैं, दिशाहीन हैं, और उस खालीपन से डरते हैं। इसलिए हम नई चाहतें पैदा करते हैं — नई चीज़ें, नए लोग, नए सपने। पर कहानी फिर वही रहती है — कुछ समय बाद सब फीका पड़ जाता है। और तब एक दिन, वह खुद से थक जाता है। बैठकर सोचता है, “कभी जिस चीज़ के लिए जान दे दी थी, आज वही गले का हार बन गई है।”

यह थकान किसी एक इंसान की नहीं है। यह हर उस व्यक्ति की कहानी है जो ‘चाहत’ को ‘सुख’ समझ बैठा। लेकिन सुख, चाहत का परिणाम नहीं, बल्कि चाहत से मुक्ति का नाम है। यह बात देर से समझ में आती है, पर जब आती है, तो ज़िंदगी का रंग बदल देता है।

धीरे-धीरे इंसान देखना शुरू करता है — कि जिन चीज़ों को वह पाना चाहता था, उनमें से कोई भी उसे स्थायी शांति नहीं दे सकी। हर चीज़ का एक समय था, और वह बीत गया। अब जो बचा है, वह सिर्फ स्मृति है — और स्मृति का बोझ कभी-कभी वर्तमान से भी भारी होता है।

फिर वह एक दिन अपनी अलमारी साफ़ करता है। पुराने कपड़े, पुराने पत्र, पुराने फोटो, पुराने सपने। हर चीज़ को छूते हुए याद आता है कि कभी इसके लिए कितना जोश था, और अब बस यह एक वस्तु है। उसे रखते हुए मन में कोई अपनापन नहीं, कोई उत्तेजना नहीं। बस एक शांति — ठंडी, निष्क्रिय, पर सच्ची। और उसी शांति में कहीं एक सीख छिपी होती है — कि शायद चीज़ें कभी हमें नहीं बदलतीं, हम ही चीज़ों के अर्थ बदल देते हैं।

ज़िंदगी में आम आदमी की चाहतें भी अक्सर इतनी सरल होती हैं कि उन्हें देख कर लगता है — इन्हें पाने में तो कुछ नहीं लगता। एक छोटा सा घर, जिसमें बच्चे हँस सकें, पत्नी आराम से रह सके। एक गाड़ी, जिससे सुबह की भागदौड़ आसान हो जाए। एक मोबाइल, जिससे परिवार और दोस्त जुड़ सकें, और कभी-कभी खुद की दुनिया में खोए रह सकें। एक अच्छी नौकरी, जो सम्मान दिलाए, बैंक बैलेंस बढ़ाए, और कल की चिंता कम करे।

पहले ये चीज़ें सपना होती हैं। सपने में दिन-रात उनकी कल्पना होती है। सोचते हैं कि अगर यह सब मिल गया, तो जीवन पूरा होगा। लेकिन जब ये चीज़ें मिल जाती हैं, मन अक्सर चुपचाप पूछता है — “अब क्या?”

फिर प्रेम। प्रेम और मोहभंग की कहानी भी वैसी ही है। शुरुआत में लगता है कि अगर यह मिल गया, तो जीवन मुकम्मल हो जाएगा। हर सुबह सिर्फ उसके संदेश का इंतजार, हर शाम उसकी हँसी की याद, और हर पल उसकी मौजूदगी की कल्पना — यही जीवन का उद्देश्य बन जाता है। धीरे-धीरे पता चलता है कि प्यार केवल पाने और मोह में रहने की चीज़ नहीं है। कभी हाथ पकड़ने की चाह, कभी आवाज़ सुनने की बेचैनी, कभी सिर्फ़ उसकी स्मृति में खो जाने का सुख — धीरे-धीरे रूटीन और जिम्मेदारी में बदल जाता है।

अंत में उम्र बढ़ती है, अनुभव आता है। जो चीज़ें कभी सबसे जरूरी थीं, अब उनमें मोह कम, अनुभव ज्यादा बन जाता है। बड़े घर, महंगी गाड़ी, बड़ी नौकरी — सब कुछ मिल जाता है, पर मन पूछता है — “अब क्या?” और यही वह सवाल है जो इंसान को भीतर से समझदार बनाता है।

धीरे-धीरे जीवन की छोटी खुशियाँ — बच्चों की हँसी, पत्नी की मुस्कान, दोस्तों की मुलाकात, सुबह की चाय, शाम की हवा — यही असली आनंद बन जाती हैं। बड़े लक्ष्य, बाहरी चीज़ें, मोह और दौड़ — सब अनुभव और स्मृति बन जाते हैं।

इस समझदारी में इंसान सीखता है कि जीवन का असली सुख किसी चीज़ को पाने में नहीं, बल्कि **समझने, अनुभव करने और छोड़ने में** है।

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