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छोटे बच्चों की बड़ी दुनिया

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एक सरकारी स्कूल में नर्सरी कक्षा चलाना अक्सर जितना सरल दिखाई देता है, उतना होता नहीं है। छोटे बच्चों की दुनिया बहुत अलग होती है—उनकी समझ, उनकी भाषा, उनका डर और उनका उत्साह सब कुछ बिल्कुल नरम मिट्टी की तरह होता है। शिक्षक के एक छोटे से व्यवहार का भी बच्चों पर बड़ा प्रभाव पड़ सकता है। इसलिए नर्सरी क्लास उन स्थानों में से है जहाँ शिक्षण केवल पाठ्यक्रम पूरा करना नहीं, बल्कि बच्चों के मन को समझते हुए उनके साथ सामंजस्य बनाना भी होता है।

सरकारी स्कूल, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों के, अपने आप में कई चुनौतियों के साथ काम करते हैं। बच्चों के घरों का वातावरण, उनकी दिनचर्या, अभिभावकों का सहयोग, बच्चों की समझने की क्षमता—ये सारी बातें अलग-अलग होती हैं। कई बच्चे पहली बार किसी औपचारिक माहौल में आते हैं और उन्हें यह समझने में समय लगता है कि स्कूल क्या है, शिक्षक कौन है और पढ़ाई का अर्थ क्या है। ऐसे में शिक्षक का धैर्य ही बच्चों को सीखने की पहली सीढ़ी पर चढ़ाता है।

जब बच्चे काम ना करें, ध्यान भटकाएँ या समझने में समय लें, तो यह स्वाभाविक है कि शिक्षक को कभी-कभी निराशा या झुंझलाहट महसूस हो। कई बार कक्षा का माहौल संभालने के लिए शिक्षक मज़ाक में कुछ कह देते हैं या कोई ऐसा तरीका अपनाते हैं जिससे बच्चों को जल्दी से पढ़ाई करने के लिए प्रेरित किया जा सके। शिक्षक का उद्देश्य बुरा नहीं होता। वह सिर्फ चाहता है कि बच्चे ध्यान दें, कुछ सीखें और आगे बढ़ें। लेकिन छोटे बच्चे, खासकर नर्सरी के, ऐसी बातों को अलग तरह से समझ लेते हैं।

उनकी मानसिकता अभी इतनी विकसित नहीं होती कि वे मज़ाक, गुस्सा और गंभीरता में अंतर कर सकें। वे हर बात को जस का तस मान लेते हैं। यदि उन्हें किसी बात से लगता है कि वे स्कूल से घर नहीं जा पाएँगे, या उन्हें किसी तरह से रोका जाएगा, तो उनका मन डर सकता है। यह डर न सिर्फ पढ़ाई से बल्कि स्कूल के पूरे वातावरण से नकारात्मक भाव पैदा कर सकता है। एक छोटे बच्चे के लिए सुरक्षा और भरोसा सीखने की नींव है। जब तक उसे सुरक्षित महसूस नहीं होगा, वह सीखने के लिए अपने मन को पूरी तरह खोल नहीं पाएगा।

अक्सर शिक्षक सोचते हैं कि थोड़ा-बहुत डराने से बच्चे तुरंत काम करने लगते हैं। हाँ, कुछ बच्चे उस पल तो बात मान लेते हैं, पर अंदर ही अंदर उनके मन में एक भाव रह जाता है कि स्कूल = डर। यह धारणा धीरे-धीरे सीखने के आनंद को खत्म कर देती है। खासतौर पर सरकारी स्कूलों में, जहाँ पहले से ही बच्चों की घर की चुनौतियाँ अधिक होती हैं, किसी भी प्रकार की भावनात्मक असुरक्षा बच्चे की सीखने की क्षमता को कम कर सकती है।

आधुनिक शिक्षा पद्धति में ‘चाइल्ड-फ्रेंडली क्लासरूम’ पर बहुत ज़ोर दिया जाता है। इसका मतलब यह नहीं कि बच्चे चाहे जो करें, और शिक्षक कुछ न कहें— बल्कि इसका मतलब यह है कि बच्चों को समझाने के तरीके ऐसे हों कि वे सहज महसूस करें, प्रेरित हों और सीखने में खुशी महसूस करें। छोटे बच्चों को डराकर या दबाव डालकर सीखाना समय के साथ प्रभावहीन हो जाता है, जबकि प्यार, धैर्य और खेल-आधारित सीख उन्हें आत्मविश्वास देता है।

एक नर्सरी कक्षा में कल्पना कीजिए—कुछ बच्चे चुपचाप काम कर रहे हैं, कुछ इधर-उधर देख रहे हैं, कुछ एक-दूसरे की कॉपी में झाँक रहे हैं और कुछ बिल्कुल ही अलग दुनिया में खोए हुए हैं। यह दृश्य सामान्य है। ऐसे में शिक्षक का ध्यान बँटना भी स्वाभाविक है। लेकिन बच्चों को निर्देश देने का तरीका ही पूरी कक्षा का माहौल तय करता है। यदि शिक्षक शांत स्वर में, नरम शब्दों में, छोटी गतिविधियों के साथ पढ़ाता है, तो माहौल हल्का और सीखने का बनता है।

कभी-कभी शिक्षक मज़ाक में ऐसी बात बोल देते हैं जो बच्चों के मन में भारी पड़ जाती है। लेकिन एक साधारण वाक्य भी—“काम जल्दी करो, फिर हम खेलेंगे”—बच्चों पर बहुत सकारात्मक प्रभाव डाल सकता है। छोटे इनाम, स्टार, स्टिकर, ताली, कहानी, गाना—ये सब उनके लिए बहुत बड़े प्रोत्साहन होते हैं।

कक्षा में यदि कोई बच्चा काम नहीं कर रहा, तो उसे अलग से दो मिनट समझाना अधिक प्रभावी होता है। आँखों में देख कर, नाम लेकर, मुस्कान के साथ धीरे से समझाने से वह बच्चा तुरंत जुड़ाव महसूस करता है। यह तरीका न केवल उसके डर को कम करता है, बल्कि उसके मन में शिक्षक के लिए सम्मान और प्यार बढ़ाता है।

एक और बात अक्सर देखी जाती है कि कुछ बच्चे घर से ही थोड़े डरपोक या संकोची होते हैं। जब स्कूल में भी उन्हें ऐसा अनुभव मिलता है जो उन्हें असुरक्षित महसूस कराए, तो वे धीरे-धीरे स्कूल से ही दूर होने लगते हैं। कई सरकारी स्कूलों में ऐसे बच्चे मिलते हैं जो बुलाने पर भी अगले दिन स्कूल नहीं आते क्योंकि उन्हें लगा था कि शिक्षक नाराज़ हैं या वे किसी “सज़ा” से डर गए। इसलिए शिक्षक की थोड़ी-सी देखभाल बच्चों के भविष्य को दिशा दे सकती है।

अभिभावक और शिक्षक दोनों ही बच्चों की दुनिया में महत्वपूर्ण स्तंभ हैं। यदि दोनों मिलकर प्यार और सहानुभूति से बच्चों को संभालें, तो बच्चे बहुत जल्दी सीखते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में माता-पिता अक्सर खुद शिक्षा के बारे में उतने जागरूक नहीं होते, इसलिए शिक्षक ही बच्चों के सबसे बड़े मार्गदर्शक बन जाते हैं।

इस बात में कोई शक नहीं कि शिक्षक का काम कठिन है, लेकिन वही कठिनाई शिक्षक को अधिक संवेदनशील, अधिक रचनात्मक और अधिक धैर्यवान भी बनाती है। कई शिक्षक अपने अनुभव के आधार पर ऐसे तरीके अपनाते हैं जो बच्चों को बहुत पसंद आते हैं—जैसे कहानी के साथ पढ़ाई, चीज़ों को चित्रों में समझाना, बच्चों को छोटे-छोटे ज़िम्मेदारी वाले काम देना, जैसे—“तुम आज बोर्ड साफ़ करोगे”, “तुम किताबें बाँटोगे”, “तुम स्टार स्टिकर चिपकाओगे।”

इस तरह के काम बच्चों में उत्साह पैदा करते हैं और वे खुद ही अच्छी तरह सीखना शुरू कर देते हैं।

अंत में, नर्सरी बच्चों के लिए स्कूल वह जगह होनी चाहिए जहाँ उन्हें सुरक्षित माहौल मिले, जहाँ वे शिक्षक को अपना मित्र समझें, जहाँ वे बिना डर के सवाल पूछ सकें और जहाँ वे अपनी गलती करने पर भी सहज महसूस करें। डर से सीख कभी स्थायी नहीं होती, लेकिन प्यार और धैर्य से समझाई गई बात बच्चे जीवन भर नहीं भूलते।

इसलिए, नर्सरी कक्षाओं में काम करने वाले सभी शिक्षकों के लिए एक सरल और दोस्ताना सुझाव यही है कि बच्चों के साथ व्यवहार हमेशा नरम, संवेदनशील और प्रेरणादायक हो। बच्चे छोटे हैं, समझने में समय लगता है—लेकिन उनका मन बेहद साफ होता है। जो भी भाव उन्हें दिया जाता है, वही आगे उनकी सीखने की इच्छा को आकार देता है। यदि उन्हें डर नहीं, बल्कि भरोसा और स्नेह मिलेगा, तो वे सीखने में भी मन लगाएंगे और शिक्षक से भी गहरा जुड़ाव महसूस करेंगे।

यही छोटे-छोटे बदलाव स्कूल के वातावरण को और अधिक सकारात्मक बनाते हैं और बच्चों के भविष्य को मजबूत करते हैं।

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