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सुविधाएँ और जिम्मेदारी

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यह बात सच है कि हमारे समाज में बहुत-सी सुविधाएँ इसलिए बर्बाद होती हैं क्योंकि लोग उन्हें जिम्मेदारी से इस्तेमाल करने की आदत नहीं बनाते। आम भारतीय मध्यमवर्गीय जीवन में यह समस्या हर जगह दिखती है—चाहे घर के अंदर हो या किसी सोसाइटी, दफ़्तर या सार्वजनिक स्थान पर। मूल कारण कहीं न कहीं लापरवाही, आराम-परस्ती और “मेरी सुविधा पहले” वाला दृष्टिकोण है। उदाहरण के तौर पर, अगर घर में चार गीजर लगे हैं तो हर परिवार का सदस्य अपना-अपना अलग गीजर इस्तेमाल करेगा, चाहे एक ही गीजर से सबका काम आराम से चल सकता हो। बिजली का खर्च बढ़ता है, पानी की खपत भी बढ़ती है, लेकिन किसी को यह सोचने की इच्छा नहीं होती कि जो ऊर्जा या पानी नष्ट हो रहा है, उसकी कीमत सिर्फ पैसे में नहीं—भविष्य की जरूरतों में भी चुकानी पड़ती है।

सच कहें तो समस्या पैसे की नहीं, सोच की है। लोग अपने समय, अपनी सुविधा और अपने आराम को महत्व देते हैं, यह स्वाभाविक भी है, लेकिन जब यह सुविधा-प्रधान सोच सामूहिक जिम्मेदारी पर हावी हो जाती है, तब संसाधनों की बर्बादी होना तय है। सोसाइटी में लगा सोलर हीटर हो या रेन वॉटर हार्वेस्टिंग सिस्टम—कई बार ये इसलिए बेकार पड़े रहते हैं क्योंकि लोग अपनी आदतें बदलना नहीं चाहते। अगर गर्म पानी सुबह 7–10 बजे ही मिलता है तो लोग उस समय पर स्नान का समय नहीं बदलते; वे गैस या बिजली वाला गीजर ही चला देते हैं। यानी मुफ्त में मिलने वाली चीज भी तभी उपयोगी लगती है जब वह हमारी आदतों और आराम के हिसाब से फिट बैठती है।

भारतीय मध्यमवर्ग के जीवन में “पैसा बचाना” अक्सर एक सिद्धांत के रूप में माना जाता है, लेकिन व्यवहार में, लोग ऐसी छोटी-छोटी गलतियों में पैसा भी बर्बाद कर देते हैं और संसाधन भी। बहुत से लोग आसानी से कहते हैं—“अरे छोड़ो, थोड़ा खर्च हो भी गया तो क्या फर्क पड़ता है”—लेकिन बात सिर्फ पैसे की नहीं है, बात उस रवैये की है जो धीरे-धीरे समाज को लापरवाह बना देता है। असली मूल्य तो यही है कि हम जो भी खर्च करें वो सही जगह हो, सही कारण के लिए हो, और जहां बचत संभव है, वहां बचत को आदत बनाया जाए। आखिरकार, मूल्य के हिसाब से खर्च करना और संसाधनों को सम्मान देना ही एक समझदार और जिम्मेदार नागरिक की पहचान है।

हर सुविधा का सही उपयोग करना, चाहे वह बिजली हो, पानी हो, गैस हो, या सोसाइटी की सामूहिक सुविधाएँ—यह व्यवहार हमें ही नहीं, आने वाली पीढ़ियों को भी फायदा देता है। यह जानना जरूरी है कि अनावश्यक खर्च करने में कोई बहादुरी या प्रतिष्ठा नहीं, लेकिन सोच-समझकर चलने में बहुत गर्व होता है। जब आम लोग यह समझ जाते हैं कि उनकी एक-एक आदत देश के संसाधनों को प्रभावित करती है, तब समाज में असली बदलाव आता है।

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