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ज़रूरी और ज़रूरत

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ज़रूरी और ज़रूरत, यह दो शब्द देखने में तो बहुत छोटे लगते हैं, लेकिन जीवन की आधी उलझनें, आधा तनाव और आधी गलतियाँ इन्हें ठीक से न समझ पाने से ही पैदा होती हैं। अक्सर हम यह मान लेते हैं कि जो कुछ हमें इस समय चाहिए, वह बहुत ज़रूरी है, जबकि वह सिर्फ एक ज़रूरत होती है, और कभी-कभी सिर्फ एक इच्छा। फर्क समझ में आ जाए, तो जीवन बहुत हल्का लगता है, मन शांत होता है और फैसले सही होते हैं। पर फर्क न समझ आए तो मन में बेचैनी, तनाव, झगड़े और अनावश्यक बोझ बढ़ जाते हैं। यही फर्क बच्चों को भी समझ नहीं आता और कई बार बड़े भी गलतियाँ कर बैठते हैं।

हमारी जिंदगी में कुछ बातें सच में ज़रूरी होती हैं—जैसे भोजन, पानी, शिक्षा, परिवार का प्यार, स्वास्थ्य, सुरक्षा, और ईमानदारी जैसे मूल्य। इनके बिना जीवन अधूरा है। ये नींव हैं, जिन पर बाकी सब चीजें खड़ी होती हैं। लेकिन हर व्यक्ति की परिस्थितियाँ अलग होती हैं, इसलिए जरूरतें बदलती रहती हैं। उदाहरण के लिए, किसी बच्चे के लिए स्कूल बैग ज़रूरी है, पर उसका डिजाइनर या ब्रांडेड होना जरूरत है। मोबाइल फोन आज की दुनिया में एक उपयोगी चीज है, पर हर साल नया मॉडल लेना जरूरत नहीं, बल्कि कई बार सिर्फ इच्छा होती है।

बहुत बार बच्चे अपने दोस्तों को देखकर मान लेते हैं कि उन्हें वही चीज चाहिए जो बाकी सभी के पास है। जैसे मान लीजिए, एक बच्चा स्कूल में अपने सहपाठी का महंगा पेन देखता है। वह घर आकर कहता है कि मुझे भी यही चाहिए, नहीं तो पढ़ाई सही से नहीं होगी। पर असल में पेन पढ़ाई के लिए ज़रूरी है, लेकिन वही कंपनी वाला पेन ज़रूरत नहीं। बच्चा यह फर्क नहीं समझ पाता, क्योंकि उसके लिए तुलना बहुत तेज़ी से काम करती है। उसे लगता है कि अगर उसके पास वह चीज़ नहीं हुई, तो वह किसी से कम हो जाएगा। पर सच यह है कि कम या ज़्यादा इंसान चीज़ों से नहीं, अपने गुणों से बनता है।

मध्यवर्गीय परिवारों में यह बात और भी गहरी है। हमारे घरों में बड़े-बुजुर्ग हर खर्च से पहले दो बार सोचते थे। वे यह समझते थे कि जो पैसा है, वह मेहनत से आता है और उसका सही उपयोग बहुत महत्वपूर्ण है। लेकिन आज के समय में विज्ञापन, दिखावा, सोशल मीडिया—सब मिलकर हमारी जरूरतों को ज़रूरी जैसा दिखाने लगते हैं। आपको लगता है कि वह शर्ट अब काम की नहीं क्योंकि नया फैशन आ गया है; बच्चे को लगता है कि उसका मोबाइल धीमा चल रहा है, जबकि वह सिर्फ थोड़ी जगह खाली करने से ठीक चल सकता है। यह सब मिलकर हमारी सोच को भ्रमित कर देते हैं।

मान लीजिए, एक पिता अपने बच्चे की फीस भरने और एक महंगे ट्यूशन बैग खरीदने के बीच निर्णय ले रहा है। दोनों में से एक चीज ले सकता है। बच्चा कहता है कि बैग बहुत ज़रूरी है, दोस्त हँसेंगे। पिता समझाता है कि फीस भरना ज़रूरी है, क्योंकि शिक्षा तुम्हें भविष्य देगी। बैग ज़रूरत है, लेकिन ऐसा भी लिया जा सकता है जो काम चलाने लायक हो। पिता के चेहरे पर चिंता, और बच्चे की उस समय की अधूरी समझ—दोनों के बीच सही रास्ता तभी निकलता है जब यह फर्क समझ में आता है।

यह बात सिर्फ सामान तक सीमित नहीं रहती। समय के उपयोग में भी यही फर्क गहरा असर डालता है। जैसे नींद, स्वास्थ्य, और मन की शांति ज़रूरी हैं, लेकिन देर रात वीडियो देखने या लगातार गेम खेलने को बच्चा जरूरत या आदत समझ लेता है। पर बाद में वही बच्चा जब सुबह देर से उठता है या पढ़ाई में पिछड़ता है, तब उसे अहसास होता है कि उसने जरूरत और ज़रूरी को उल्टा समझ लिया।

बड़ों के जीवन में भी ऐसा ही होता है। कभी-कभी हम रिश्तों में छोटी बातों को इतना बड़ा मान लेते हैं कि रिश्ते बिगड़ जाते हैं। एक-दूसरे को सुनना, समझना, सम्मान देना ज़रूरी है। लेकिन कभी-कभी कुछ बातें सिर्फ जरूरत होती हैं, जैसे किसी दिन अकेला समय चाहना, किसी काम में मदद माँगना, थोड़ा धीमा चलना। पर जब हम इन्हें ज़रूरी मानते हुए दूसरों पर दबाव डालते हैं तो रिश्तों में खटास आ जाती है। यही वजह है कि बहुत से झगड़े और गलतफहमियाँ सिर्फ इस बात से पैदा होते हैं कि किसी ने जरूरत को ज़रूरी समझ लिया और किसी ने ज़रूरी को नजरअंदाज कर दिया।

इस विषय को समझाने के लिए एक सरल दृश्य की कल्पना करें। गाँव का एक बुजुर्ग अपने पोते के साथ खेत की ओर जा रहा है। रास्ते में पोता कहता है कि उसे नया जूता चाहिए, क्योंकि पुराने वाले पर थोड़ी खरोंच है। बुजुर्ग मुस्कुराते हुए कहते हैं, “बेटा, ये जूता अभी काम कर रहा है? चल पाता है?” बच्चा कहता है हाँ, पर यह अच्छा नहीं दिखता। तब दादा जी धीरे से कहते हैं, “अच्छा दिखना ज़रूरत है, लेकिन चल पाना ज़रूरी। चलने की क्षमता ही तुम्हें मंजिल तक ले जाएगी, दिखावा नहीं।” बच्चा चुप हो जाता है, और यही सीख जिंदगी भर उसके काम आती है। कभी-कभी ऐसी छोटी बातें जीवन को बहुत गहन बना देती हैं।

इसी प्रकार, पैसों की बचत भी एक ऐसी चीज है जिसे हम अक्सर जरूरत या मजबूरी मान लेते हैं। पर सच में यह ज़रूरी है। क्योंकि मुश्किल समय बताकर नहीं आता। मध्यवर्गीय परिवार यही सीख पीढ़ी दर पीढ़ी देते आए हैं—कि आप अपनी ज़रूरतों को छोटा करके ज़रूरी चीजों में निवेश करें। कोई व्यक्ति अगर कमाता है, पर हर बार सिर्फ अपनी इच्छाओं या दिखावे में खर्च करता है, तो समस्या वहीं से शुरू हो जाती है। लेकिन जो यह समझ लेता है कि जरूरतें सीमित हैं और ज़रूरी चीजें जीवन को स्थिर बनाती हैं, वह हमेशा सुरक्षित और शांत रहता है।

इस विषय को भावनात्मक रूप से समझने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि हम अपने जीवन के पुराने क्षण याद करें। जब हम छोटे थे, हमें लगता था कि नया खिलौना, नया बैग, नई किताब—सब ज़रूरी हैं। लेकिन जब 10–15 साल बाद उन चीजों को देखते हैं, तो याद आता है कि असल में ज़रूरी तो वह हंसी थी, वह समय था जो हमने परिवार के साथ बिताया, वह सीख थी जो माता-पिता ने दी, और वह आदर जो हमने जीवन में कमाया। हम समझ जाते हैं कि चीजें बदल जाती हैं, पर मूल मूल्य—ईमानदारी, मेहनत, दया—ये हमेशा ज़रूरी रहते हैं। और यही इंसान को मजबूत बनाते हैं।

अगर किसी बच्चे को यह फर्क बचपन में समझ आ जाए, तो वह अपने पूरे जीवन में सही निर्णय लेगा। और अगर कोई बड़ा भी इस फर्क को दोबारा सीख ले, तो वह जीवन की कई परेशानियों से बच सकता है। क्योंकि समझदारी सिर्फ बड़े होने से नहीं आती, सही समझ आने से आती है।

आख़िर में यही कहा जा सकता है कि ज़रूरी वो है जो जीवन, रिश्ते, स्वभाव और भविष्य को मजबूत बनाए। जरूरत वो है जो परिस्थितियों के अनुसार बदलती रहती है। और इच्छा वह है जिसमें कोई अंत नहीं। जब हम इन तीनों को अलग-अलग पहचानना सीख जाते हैं, तो हम न केवल बेहतर इंसान बनते हैं, बल्कि अपने परिवार, बच्चों और समाज के लिए एक अच्छा उदाहरण भी स्थापित करते हैं। जीवन सरल लगता है, मन शांत रहता है और हर निर्णय बिना तनाव के लिया जाता है।

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