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वो एक दरवाज़ा – निर्णय लेने की कला सिखाती एक दिल को छू लेने वाली कहानी
भूमिका:
हम सभी की ज़िंदगी में रोज़ ऐसे छोटे-छोटे निर्णय आते हैं जिनका कोई बड़ा प्रभाव नहीं होता, लेकिन उन पर सोचते-सोचते हम अपना समय, ऊर्जा और आत्मविश्वास खो देते हैं। यह कहानी एक ऐसे छात्र की है, जो इस आदत से जूझ रहा था, और कैसे उसने एक छोटी-सी घटना से जीवन की बड़ी सीख ली।
रघु और उसकी उलझन
रघु, एक समझदार और होशियार लड़का था, लेकिन उसमें एक कमजोरी थी —
छोटी-छोटी बातों पर सोचते रह जाना।
रघु का हर दिन इसी सोच में गुजरता कि कौन से कपड़े पहनूं, किस दोस्त के साथ खेलूं, पहले होमवर्क करूं या खाना खाऊं, स्कूल की बस पकड़ूं या पैदल जाऊं। ऐसे फैसले जो बाकी बच्चे मिनटों में ले लेते थे, रघु उन्हें घंटों सोचता। और अक्सर सोचते-सोचते मौका हाथ से निकल जाता। कई बार वह स्कूल में अपना टिफिन खोलकर बैठा रह जाता था — सोचते हुए कि पहले रोटी खाए या सब्ज़ी।
होमवर्क करते हुए तय नहीं कर पाता था कि पहले मैथ करे या हिंदी।
कभी-कभी तो वह खेलने जाने से पहले जूते चुनने में ही 15 मिनट लगा देता था।
उसकी माँ उसे प्यार से समझाती, "रघु बेटा, निर्णय लेना सीखो। जो छोटे फैसले हैं, उन्हें दिल और दिमाग से जल्दी निपटाओ, वरना जीवन के बड़े फैसले तुमसे कभी लिए नहीं जाएंगे।"
"बेटा, दुनिया उन लोगों की होती है जो फ़ैसले लेने से नहीं डरते।"
एक छूटा अवसर
एक दिन स्कूल में नोटिस आया – "अंतरविद्यालय विज्ञान प्रदर्शनी" में भाग लेने के लिए 8वीं और 9वीं के विद्यार्थियों से प्रविष्टियाँ आमंत्रित हैं। जो छात्र चयनित होंगे, उन्हें राज्य स्तर तक जाने का मौका मिलेगा।
रघु के मन में एक बढ़िया आइडिया था – "पानी से चलने वाली बैटरी का मॉडल" – जो उसने पिछले साल एक पत्रिका में देखा था। वह इस विचार को प्रस्तुत करना चाहता था।
लेकिन जैसे ही आवेदन पत्र उसके हाथ में आया, वह सोच में पड़ गया – "अगर मेरा मॉडल न चला? अगर हँसी उड़ गई? अगर किसी और का आइडिया बेहतर हुआ तो?"
वह कई बार फार्म भरने बैठा, फिर वापस रख देता। आख़िरकार अंतिम तिथि निकल गई।
जब उसके दोस्त रवि ने चयनित होकर जिला स्तर पर पहला पुरस्कार जीता, तो रघु को बहुत दुख हुआ। रवि ने कहा, “भाई, तेरा आइडिया तो मुझसे भी अच्छा था, तूने आवेदन क्यों नहीं दिया?”
रघु के पास कोई जवाब नहीं था। उसके चेहरे पर अफ़सोस की एक गहरी रेखा थी।
एक दिन स्कूल में भाषण प्रतियोगिता थी। रघु का नाम पुकारा गया।
विषय मिला:
“आप अकेले ट्रेन में सफर कर रहे हैं, और आपकी सीट पर कोई बुजुर्ग व्यक्ति बैठा है जो बीमार है। आप क्या करेंगे?”
रघु मंच पर गया। सोचने लगा —
क्या मैं अपनी सीट दे दूँ? क्या पूछ लूँ पहले? या टिकट दिखवाऊँ?
वह तय ही नहीं कर पाया कि कैसे शुरू करे।
समय निकल गया। वह मंच से उतर गया — चुप, उदास, हताश।
एक दिन की बात है। गर्मी की छुट्टियाँ थीं। स्कूल बंद था। सुबह-सुबह रघु के दादाजी ने उसे पुकारा – “रघु बेटा, जरा खेत से मेरी छड़ी तो उठा ला। वो पेड़ के पास रखी होगी।”
रघु बोला, “जी दादाजी।” और चल पड़ा खेत की ओर। रास्ते में उसे एक पुराना सा लकड़ी का दरवाज़ा दिखा – जो बंद था, लेकिन ताला नहीं था।
दरवाज़े के बाहर एक तख्ती लटक रही थी – “खोलने पर सोच-समझकर निर्णय लें।”
अब रघु रुक गया। सोचने लगा – “इस दरवाज़े के पीछे क्या होगा? खतरा या खजाना? अगर खतरा हुआ तो? अगर खजाना हुआ और मैं नहीं गया तो?”
उसने दरवाज़े के पास चक्कर काटना शुरू कर दिया। कभी झांकता, कभी कान लगाता। फिर वह वहीं बैठ गया और सोचने लगा। पाँच मिनट… दस मिनट… आधा घंटा… एक घंटा बीत गया।
गांव का एक बुजुर्ग वहां से गुजरा। रघु को देखकर बोला, “क्या कर रहे हो बेटा?”
रघु बोला, “इस दरवाज़े को खोलूं या नहीं, सोच रहा हूं।”
बुजुर्ग हँसने लगा। बोला, “बेटा, ये दरवाज़ा तो बंजर खेत में खुलता है। जो भी पहली बार आता है, यही सोचता है। मगर ये बस एक दरवाज़ा है। तुमने एक घंटा खो दिया, जब कि वो छड़ी पेड़ के पास तुम्हारा इंतज़ार कर रही है।”
रघु को झटका सा लगा। उसने सिर झुका लिया और चुपचाप वापस चल पड़ा।
घर पहुंचते ही दादाजी बोले, “बेटा, तू गया तो था पाँच मिनट का काम करने। एक घंटा कहां था?”
रघु ने सिर झुका कर सारी बात बताई।
दादाजी मुस्कुराए और बोले, “बेटा, जीवन में ऐसे बहुत से ‘दरवाज़े’ आते हैं – कुछ असली, कुछ काल्पनिक। अगर हर दरवाज़े पर रुक कर सोचते रहोगे कि क्या होगा, तो जीवन की दौड़ में पीछे रह जाओगे। जो फैसले छोटे हैं – जैसे क्या पहनना है, किससे बात करनी है, कौन सा रास्ता लेना है – उन्हें तुरंत निपटाओ। निर्णय लो। गलत होगा तो सीख मिलेगी। सही होगा तो मंज़िल मिलेगी।”
रघु को हुआ अपनी कमजोरी का एहसास
उस रात उसने खुद को आईने में देखा और मन में सवाल किया:
"मैं हमेशा सोचते-सोचते पीछे क्यों रह जाता हूँ? क्या मैं कभी बदल पाऊँगा?"
उसने पहली बार अपने भीतर झाँका।
उसे महसूस हुआ कि उसका डर केवल गलत निर्णय लेने का नहीं, बल्कि लोगों के सामने गलत दिखने का है।
एक निर्णय – बदलाव की शुरुआत
अगले ही दिन से उसने अपने छोटे निर्णयों पर प्रयोग शुरू किया:
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स्कूल जाते समय खुद तय किया कि कौन-सी शर्ट पहने।
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खाना खाते समय बिना सोचे जो मिला, पहले वही खाया।
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दोस्तों के साथ खेल का चुनाव खुद किया — भले वो खेल हार गया हो।
धीरे-धीरे, उसे मज़ा आने लगा।
गलत निर्णय भी अब अनुभव बनकर उसे सिखा रहे थे।
ट्रेन वाली स्थिति, लेकिन अब मंच पर नहीं – असली जीवन में
कुछ दिन बाद वह ट्रेन से अकेले कहीं जा रहा था। एक बुजुर्ग उसकी सीट पर बैठे थे — थके हुए, बीमार।
इस बार उसने बिना झिझक मुस्कराकर कहा,
“चाचाजी, आप यहीं बैठिए। मैं पास में खड़ा हो जाऊँगा।”
बुजुर्ग की आँखों में आशीर्वाद था।
और रघु के मन में सुकून —
इस बार उसने देर नहीं की थी।
मंच पर वापसी – बदले हुए रघु के साथ
अगली प्रतियोगिता में विषय मिला:
“आपके जीवन का सबसे महत्वपूर्ण निर्णय।”
रघु ने कहा:
“मेरा सबसे बड़ा निर्णय यह था कि मैं निर्णय लेना सीखूँ।
मैंने डर को हराया — सोच के जाल को काटा।
और तब जाना कि कभी-कभी देर करने से बड़ा कोई नुकसान नहीं होता।”
तालियाँ गूंज उठीं।
अंतिम दृश्य – वही दरवाज़ा फिर सामने
कुछ हफ्ते बाद वह फिर से खेत जा रहा था।
वही दरवाज़ा… वही तख्ती:
“खोलने से पहले सोच-समझकर निर्णय लें।”
इस बार रघु मुस्कुराया।
बिना रुके दरवाज़ा खोला।
सामने वही बंजर खेत।
लेकिन अब वो खाली नहीं लगा —
वो अनुभव से भरा हुआ था।
उसने मन ही मन कहा:
“सोचना अच्छा है, लेकिन रुकना नहीं। निर्णय लेना ही चलना है।”
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