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Donations

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“तुम जानते हो, दान करना हमारी संस्कृति का कितना बड़ा हिस्सा है?”

“हाँ, बचपन से सुनते आए हैं कि दान सबसे बड़ा पुण्य है। लेकिन क्या सच में लोग दान उसी भावना से करते हैं?”
“यही तो समस्या है। बहुत बार दान करने का मक़सद बदल जाता है। जैसे कोई मंदिर में लाखों का सोना चढ़ा देता है, लेकिन मंदिर की सीढ़ियों पर बैठा बच्चा भूखा रह जाता है। ज़रा सोचो, भगवान को सोना चाहिए या उस बच्चे को रोटी?”

“सच कह रहे हो। मुझे याद है, हमारे मोहल्ले की एक दादी थीं। रोज़ दो रोटियाँ ज़्यादा बनाती थीं और बाहर रख देती थीं ताकि कोई भूखा जानवर न रहे। न उन्होंने कभी फोटो खिंचवाई, न किसी को बताया। यही असली दान है—चुपचाप, बिना दिखावे के।”
“बिलकुल। लेकिन आजकल कई लोग दान को दिखावे की चीज़ बना देते हैं। मंच पर जाकर बड़े-बड़े चेक देना, अख़बार में नाम छपवाना...। यह दान कम, नाम कमाने का तरीका ज़्यादा लगता है।”

“और हाँ, कई बार तो लोग सामने वाले की ज़रूरत समझे बिना दान कर देते हैं। जैसे किसी गरीब परिवार को फटे कपड़े दे दिए, जो पहनने लायक ही नहीं। इससे मदद होती है या अपमान?”
“सही पकड़ा। दान तभी पूरा होता है जब वह लेने वाले की असली ज़रूरत को पूरा करे। वरना वह सिर्फ सामान का बोझ बन जाता है।”

“तुम्हें कर्ण की कहानी याद है? महाभारत में दानवीर कर्ण क्यों कहलाए?”
“हाँ, उन्होंने तो अपना कवच और कुंडल भी बिना सोचे दे दिए थे।”
“बिलकुल। और सोचो, यह दान दिखावे के लिए नहीं था। यह निःस्वार्थ था। शायद इसी लिए लोग आज भी उनका नाम सम्मान से लेते हैं।”

“मतलब असली दान वही है जो बिना शोर-शराबे और बिना अहंकार के किया जाए।”
“हाँ। और दान सिर्फ पैसे या वस्तु देने तक सीमित नहीं है। किसी की बात सुनना, किसी को हिम्मत देना, किसी बुज़ुर्ग को अस्पताल छोड़ आना—ये सब भी दान है। हमें लगता है दान सिर्फ अमीर लोग कर सकते हैं, लेकिन सच तो यह है कि हर इंसान अपने स्तर पर दान कर सकता है।”

“और देखो, दान कभी लेने वाले को छोटा महसूस नहीं कराना चाहिए। मुझे एक बार याद है, मोहल्ले में एक बच्चे की फीस भरने के लिए सबने मिलकर चुपचाप पैसे इकट्ठे किए। बच्चे को पता भी नहीं चला कि किसने मदद की। जब वह अगले दिन स्कूल गया तो उसकी मुस्कान... बस वही असली दान था।”
“वाह, यह तो सचमुच दिल छू लेने वाली बात है। मतलब दान का सबसे बड़ा प्रमाण वही मुस्कान है जो सामने वाले के चेहरे पर आती है।”

“बिलकुल। इसलिए अगली बार जब भी हम दान करें तो खुद से पूछें—क्या यह उसकी ज़रूरत है? क्या इससे उसकी गरिमा बनी रहेगी? क्या यह मेरे अहंकार को बढ़ाएगा या उसके जीवन को आसान बनाएगा?”
“अगर हर कोई यह सोच ले तो शायद समाज में कोई भूखा, कोई बेसहारा और कोई निराश न रहे।”

“हां, यही तो भारतीय संस्कृति का असली दान है—दिल से किया गया, बिना अपेक्षा का, और सबसे बड़ी बात—जिससे सामने वाला मुस्कुरा सके।”

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