गर्मियों की छुट्टियाँ चल रही थीं। सूरज अपने पूरे तेज़ में था, और गली में बच्चे खेलते-खेलते पसीने से तर हो जाते थे। ऐसे ही एक छोटे से कस्बे में दसवीं कक्षा का छात्र अर्जुन रहता था। वह बहुत समझदार और होशियार लड़का था। वह अपने दोस्तों के साथ समय बिताना, किताबें पढ़ना और नई चीज़ें सीखना पसंद करता था। लेकिन कई बार, जब कोई मुश्किल स्थिति आती, तो वह सोच में पड़ जाता—"क्या मुझे कुछ करना चाहिए या कोई और करेगा?"
एक नई सीख
गर्मी की दोपहर थी। अर्जुन घर से दूध लेने निकला। रास्ते में उसने देखा कि एक बूढ़े आदमी का सामान सड़क पर गिर गया है, और वे उसे उठाने की कोशिश कर रहे हैं। वहाँ से कई लोग गुज़रे, लेकिन किसी ने मदद नहीं की। अर्जुन भी वहाँ रुका और कुछ पल तक देखता रहा।
"शायद कोई और उनकी मदद कर देगा," उसने सोचा।
लेकिन तभी, अर्जुन के ठीक पीछे एक छोटी बच्ची आई। वह मुश्किल से आठ साल की होगी। उसने बिना कुछ सोचे बूढ़े आदमी का सामान उठाने में मदद की। यह देखकर अर्जुन को झटका लगा—"मैं, जो बड़ा हूँ, बस देखता रहा, और यह छोटी बच्ची कितनी हिम्मत से आगे आई!"
उसका मन ग्लानि से भर गया। वह तुरंत आगे बढ़ा और बूढ़े आदमी का बाकी सामान समेटने में मदद की। बूढ़े आदमी ने उसे आशीर्वाद दिया, लेकिन अर्जुन का मन अब बेचैन हो गया था।
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डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम की प्रेरणादायक कहानी
उस दिन घर आकर अर्जुन ने अपने दादाजी से इस बारे में चर्चा की। दादाजी मुस्कुराए और बोले, "बेटा, यह तो बहुत अच्छी बात है कि तुम्हें अपनी गलती समझ आई। लेकिन क्या तुम जानते हो, हमारे पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ था?"
अर्जुन ने उत्सुकता से पूछा, "कैसे दादाजी?"
दादाजी ने बताया, *"जब अब्दुल कलाम छोटे थे, तो वे रामेश्वरम के एक छोटे से गाँव में रहते थे। उनके पिता नाविक थे और घर की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। इसलिए बचपन में ही कलाम को अखबार बेचने का काम करना पड़ा।
एक बार अखबार बाँटने के दौरान, अचानक एक समस्या आ गई। जिस दिन अखबारों का बंडल आने में देर हुई, कई लड़के असमंजस में थे कि क्या करें। अधिकतर बच्चे इंतज़ार करने लगे, यह सोचकर कि शायद दुकान मालिक कोई समाधान देगा। लेकिन अब्दुल कलाम ने बिना समय गँवाए फैसला किया कि वे सीधे डिलीवरी सेंटर तक जाकर खुद बंडल ले आएँगे। उनकी यह पहल देखकर बाकी लड़कों को भी प्रेरणा मिली और उन्होंने उनके साथ सहयोग किया। इसी सोच ने उन्हें आगे जीवन में भी हर चुनौती का सामना करने के लिए तैयार किया।*"
अर्जुन को यह कहानी बहुत प्रेरणादायक लगी। उसे समझ आ गया कि अगर अब्दुल कलाम उस छोटी उम्र में बिना झिझक आगे बढ़ सकते हैं, तो वह भी अपनी आदत बदल सकता है।
अर्जुन की परीक्षा
अब अर्जुन को महसूस हो गया था कि उसे भी ज़रूरत पड़ने पर पहल करनी चाहिए। लेकिन असली परीक्षा अभी बाकी थी।
पहली परीक्षा: स्कूल की सफाई
अगले दिन स्कूल में सफाई अभियान चलाया जाना था। प्रिंसिपल ने सभी बच्चों से कहा कि वे अपनी कक्षा को साफ रखें। लेकिन जब स्कूल खत्म हुआ, तो सभी छात्र जल्दी से बैग उठाकर घर जाने लगे।
अर्जुन भी जाने को तैयार था, लेकिन फिर उसने सोचा—"अगर सब यही सोचें कि कोई और सफाई करेगा, तो कक्षा गंदी ही रहेगी!"
उसने झाड़ू उठाई और सफाई करने लगा। यह देखकर उसके दो दोस्त भी रुक गए और मदद करने लगे। कुछ ही मिनटों में पूरी कक्षा चमकने लगी।
टीचर ने जब यह देखा, तो अर्जुन और उसके दोस्तों की तारीफ की। यह पहली बार था जब अर्जुन ने पहल की और इसका अच्छा परिणाम देखा।
दूसरी परीक्षा: नया छात्र
कुछ दिनों बाद कक्षा में एक नया लड़का आया। वह बहुत शर्मीला था और किसी से बात नहीं कर रहा था। अर्जुन ने देखा कि कोई भी उससे दोस्ती करने को तैयार नहीं था।
पहले अर्जुन के मन में वही पुरानी सोच आई—"कोई और दोस्ती करेगा, मुझे करने की क्या ज़रूरत है?" लेकिन फिर उसे बूढ़े आदमी और छोटी बच्ची की घटना याद आई।
उसने हिम्मत जुटाई, आगे बढ़ा और मुस्कुराकर कहा, "हाय, मेरा नाम अर्जुन है, तुम्हारा क्या नाम है?"
लड़के की आँखों में चमक आ गई। उसने धीरे से कहा, "मेरा नाम रोहन है।"
बस, वहीं से उनकी दोस्ती शुरू हो गई। धीरे-धीरे अर्जुन ने और भी कई मौकों पर पहल करनी शुरू कर दी।
तीसरी परीक्षा: सड़क पर गड्ढा
एक दिन अर्जुन ने देखा कि उसके स्कूल के सामने की सड़क पर एक बड़ा गड्ढा बन गया था। कई बच्चे उस रास्ते से रोज़ गुज़रते थे और किसी के गिरने का खतरा था।
इस बार अर्जुन ने इंतज़ार नहीं किया। उसने अपने दोस्तों के साथ मिलकर स्कूल के प्रिंसिपल को इस समस्या के बारे में बताया। प्रिंसिपल ने नगर निगम को सूचना दी, और कुछ ही दिनों में सड़क ठीक कर दी गई।
अर्जुन को इस बार बहुत गर्व महसूस हुआ। अब वह समझ चुका था कि अगर किसी समस्या को हल करना है, तो पहल खुद करनी होगी।
सीख:
अक्सर हम सोचते हैं कि कोई और पहल करेगा, कोई और पहला कदम उठाएगा। लेकिन अगर सब यही सोचते रहें, तो बदलाव कभी नहीं आएगा। पहला कदम हमेशा सबसे मुश्किल होता है, लेकिन वही सबसे ज़रूरी भी होता है।
अगर आठ साल की बच्ची बूढ़े आदमी की मदद कर सकती है, अगर डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम बचपन में जिम्मेदारी ले सकते हैं, अगर अर्जुन स्कूल में पहल कर सकता है, तो हम भी हर परिस्थिति में आगे आ सकते हैं।
अर्जुन की तरह हमें भी सीखना होगा कि पहला कदम उठाने वाला ही असली बदलाव लाता है! 🚀
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